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( २८७ ) आर्यपादा यस्य कृते क्षिप्ता दुर्व्यसने चिरम् । तं स्वयं निधनं नीत्वा जीवावोऽद्यापि दुधियौ ॥३०॥ आर्यसैन्यस्य महतो नाशप्रतिभुवाविव । अकृष्वहि वृथा नाशं नीतो बन्धुरबन्धुताम् । तन्नाऽद्य जीवितुं युक्त जीवावश्चेदतः परम् । शिष्यीभूयाहतो वीरस्वामिनः खलु नान्यथा। तदाशासनदेव्या तौ भाषश्रमण तां गतौ। नीतौ श्रीवीरपादान्ते परिवव्रजतुर्दुतम् । तदाब प्रवजितयोरपि हल्ल-विहल्लयोः। अशोकवन्द्रो वैशालीमादातुमशकन्नहि ।
त्रिशलाका० पर्व १०/सर्ग १२ उसे देखकर दोनों कुमारों ने चिन्तन किया कि अपने दोनों को धिक्कार है । अपने ने यह क्या कार्य किया। इनमें तो अपने ही दोनों खरेखर पशु ठहरे। सेचनक पशु नहीं है। क्योंकि पूज्य मातामह चेटक को ऐसे संकट में फेंका। मोटा विनाश हुआ। परन्त अपने दोनों दुष्ट बुद्धि वाले जीव थे। फलस्वरूप अपने आर्य बन्धु के मोटे सैन्य को विनाश करने में जमीन रूप हुए। और उसका वृथा नाश कराया। इसी प्रकार बन्ध को अबन्धुपन में लाया। इसलिये अब अपने को यदि जीना है तो अब से ही श्री वीर प्रभु का शिष्य होकर ही जिना चाहिए । अन्यथा जीना उचित नहीं है।
अवसर देखकर इस समय शासनदेवी भावयति हुए उन दोनों को श्री वीर प्रभु के पास ले गयी।
फलस्वरूप तत्काल उन्होंने भगवान महावीर के पास दीक्षा ग्रहण की। कूणिक की कठोर प्रतिक्षा
तदाच प्रवजितयोरपि हल्ल-विहल्लयोः । अशोकचन्द्रो
वैशालीमातुमशकन्नहि ॥३११॥ एवं सति च चंपेशः प्रतिक्षामकृतेदृशीम् ॥३१२॥ प्रतिक्षया पौरुषं हि दोष्मतां भृशमेधते । न खनामि पुरीमेतां खरयुक्तहलेन चेत् । तदाऽहं भृगुपा तेनाग्नि प्रवेशेन वानिये ॥३१३।। कृतसम्धोऽपि वैशाली पुरी भक्तुमनीश्वरः । खेदमासादयामास कूणिका क्रमयोगतः ॥३१४॥
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