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( ३२५ ) हे एक दीडियो। तुम्हारे सिद्धान्तानुसार सुभग और दुर्भग भेद नहीं हो सकते है। तथा जीव का अपने कर्म से प्रेरित होकर माना गतियों में जाना भी सिद्ध नहीं हो सकता। एवं ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र रूप भेद भी नहीं सिद्ध हो सकता है एवं कीट पक्षी और सरीसृप आदि गतियाँ भी सिद्ध न होंगी। एवं मनुष्य तथा देव बादि गतियों के भेद भी सिद्ध न होगे।
इस लोक को केवल ज्ञान के द्वारा न जानकर जो अज्ञानी धर्म का उपदेश करते है वे स्वयं नष्ट जीव अपने को तथा दूसरे को भी अपार तथा भयंकर संसार में नाश करते है।
परन्त समाधियुक्त जो पुरुष पूर्ण केवल ज्ञान के द्वारा इस लोक को ठीक-ठीक जानते है और सच्चे धर्म का उपदेश करते है। वे पाप से पार हुए पुरुष अपने को और दूसरे को भी संसार-सागर से पार करते हैं।
' आर्द्र क मुनि फिर कहते है कि-इस लोक में जो पुरुष निन्दनीय आचरण करते है और जो पुरुष उत्तम आचरण का पालन करते हैं उन दोनों के अनुष्ठानों को असर्वज्ञ जीव अपनी इच्छा से समान बतलाते है।
.०५ हस्तितापस का प्रसाद
संघच्छरेणापि य एगमेगं बाणेण मारेउ महागयतु। सेसाण जीवाण दयट्ठयाए, वासं पयं वित्ति पकप्पयामो॥
-सूय० श्रु २ । अ६ । गा ५२ । पृ० ४६७
हस्तितापस कहते मे-हम लोग शेष जीवों की दया के लिए वर्षभर में बाण के द्वारा एक बड़े हाथी को मारकर वर्षभर उसके मांस से अपना निर्वाह करते हैं ।
आव्र कुमार का उत्तर
संघच्छरेणापि य एगमेगं, पाण हणंता अणियत्तदोसा। सेसाण जीषाण पहेणलग्गा, सियाय थोवंगिहिणो वि तम्हा ।। संपध्छरेणाषि य एगमेगं, पाणं हणते "समणव्यतेऊ”। मायाहिए से पुरिसे अणज्जे, ण तारिसं केवलिणो भणंति ॥ बुद्धस्स आणाए इमं समाहि, अस्सिं मुठिचा तिविहेण ताई। तरि समुह ष महाभयोध, आयाणवं 'धम्ममुदाहरेजासि ।।
-यूय० श्रु २ । ६ । गा ५३, ५४, ५५ । पृ० ४६७
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