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भगवान के सम्बन्ध में प्रचाद (घ) गोशालक का प्रचाद
आगंतगारे आरामगारे, समणे उभीते ण उवेइ वासं । दुक्खा संती बहवे मणुस्सा, ऊणातिरित्ता यलवालवाय ॥ मेहाविणो सिक्खिय बुद्धिमंता, सुत्ते हि अत्येहि यणिच्छयण्णू । पुच्छि मा णे अणगार अण्णे, इति संकमाणो ण उवेइतत्थ || - सूय० श्रु २ । अ ६ । गा १५-१६ । पृ० ४६३
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गोशालक आद्रक जी से कहते हैं कि तुम्हारे भ्रमण महावीर स्वामी बड़े डरपोक है इसलिये वे जहाँ बहुत से आगन्तुक लोग उतरते हैं ऐसे गृहों में तथा आराम गृहों में निवास नहीं करते हैं । वे सोचते हैं कि उक्त स्थानों में बहुत से मनुष्य कोई न्यून कोई अधिक वक्ता तथा कोई मौनी निवास करते है । एवं कोई बुद्धिवान् कोई शिक्षा पाये हुए कोई मेधावी तथा कोई सूत्र और अर्थों से पूर्ण रूप से निश्चय किये हुए वहाँ निवास करते हैं अतः ऐसे दूसरे साधु मेरे से कुछ प्रश्न पूछ बैठे ऐसी आशंका करके वहाँ महावीर स्वामी नहीं जाते हैं ।
आर्द्र कुमार का उत्तर
( ३४६ )
णाकामकिया ण य बालकिचा, रायाभिओगेण कुओ भरणं । बियागरेजा पसिणं ण बावि, सकामकिच्चेणिह आरियाणं ॥ गंता व तत्था अदुषा अगंता, बियागरेजा समियासुपण्णे । अणारिया दंसणओ परित्ता, इति संकमाणोण उवेइ तत्थ ||
आर्द्रक जी गोशालक से कहते हैं कि भगवान् महावीर स्वामी बिना प्रयोजन कोई कार्य नहीं करते है तथा वे बालक की तरह बिना विचारे भी कोई क्रिया नहीं करते हैं । वे राजमय से भी उपदेश नहीं करते हैं फिर दूसरे भय की तो बात ही क्या है ? भगवान् प्रश्न का उत्तर देते हैं और नहीं भी देते हैं। वे जगत में आय्यं लोगों के लिए तथा अपने तीर्थंकर नाम कर्म के क्षय के लिए धर्मोपदेश करते हैं ।
(च) गोशालक का प्रवाद
सर्वज्ञ भगवान् महावीर स्वामी सुनने वालों के पास जाकर अथवा न जाकर समान भाव से धर्म का उपदेश करते है । परन्तु अनायं लोग दर्शन से भ्रष्ट होते हैं—इस आशंका से भगवान उनके पास नहीं जाते हैं ।
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- सुय• २ । अ ६ । गा १७, १६ | पृ० ४६३
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पण जहा वणिए उदयंडी, आयस्स हे तभोवमे समणे णायपुत्ते, इच्चेच मे होइ
पगरेह संगं । मई वियक्का ||
- सूय० ध्रु २ अ ६ । गा १६, । पृ० ४६३
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