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नंष्ट्वा स्ववपुरं यात्सु गणराजेषु चेटकः । प्रणश्य प्राविशत् पुर्यांकूणिकोऽपि रुरोधताम् ॥ २९० ॥ - त्रिशलाका० पत्र १० / सर्ग १२
वरुण की मरण प्राप्ति की सूचना मिलने से कूणिक राजा के सुभट को लकड़ी का स्पर्श होने से बराह की तरह युद्ध करने का द्धिगुण उत्साह धराने लगे । उनके ऊपर से गणराज्य से सनाथ हुए चेटक की सेना के सुभट क्रोध से होठ उसकर कृणिक की सेना को बहुत कुटी ।
स्वयं की सैन्य को इस प्रकार कुटती हुई देख कर कूणिक राजा पत्थर से हनित सिंह की तरह क्रोध से उद्धत होकर स्वयं दौड़कर आया । वीर कुंजर कूणिक सरोवर की तरह रणभूमि में कीड़ा कर शत्रु के सैन्य को कमलखंड की तरह दसों दिशाओं में भगा दिया । इस कारण कूणिक को दुर्जय जानकर अति क्रोध को प्राप्त हुआ चेटक-जो कि शौर्य रूप धनवाला था । उसने धनुष्य के ऊपर पहला दिव्य बाण चढ़ाया | उस समय शक्रेन्द्र कूणिक के आगे वज्र कवच रखा। और चमरेन्द्र उसके पृष्ठ में लोह कवच रखा । बाद में वैशाली नगरी के पति चेटक धनुष को कान तक खींचकर दिव्य बाण को छोड़ा | परन्तु वह वज्र कवच से स्खलित हो गया । उस अमोघ बाण को निष्फल हुआ देखकर चेटक राजा के सुभट उसके पुण्य का क्षय मानने लगे । सत्य प्रतिज्ञावाला चेटक दूसरा बाण छोड़ा तो वह भी निष्फल हुआ । फलस्वरूप वह वापस फिरा ।
और चेटक उसी
प्रकार बाण छोड़ा ।
।
दूसरे दिन भी उसी प्रमाण से युद्ध हुआ परन्तु वह सफल नहीं हुआ ।
और दोनों पक्ष के
इस प्रकार उनका दिन-दिन में अति घोर युद्ध हुआ । मिलकर एक कोटि और अस्सी लाख सुभट मृत्यु को प्राप्त हुए । वे सब नरक और तिर्यच
में उत्पन्न हुए ।
तत्पश्चात् गणराजा भाग कर स्वयं स्वयं के नगर में चले गये ।
फलस्वरूप चेटकराजा भी भागकर स्वयं की नगरी में प्रवेश कर गया । फलस्वरूप कूणिक आकर विशालानगरी को रूंघ लिया ।
कूणिक -
हल्ल - विहल्ल कुमार का युद्ध
सचेनक हस्ति की मृत्यु
तदा सेच नकारूढौ चंपेशस्याखिलं बलम् | वीरौ हलविल तौ रात्रावभिबभूवतुः || २९१|| न प्रहर्तु नवा ध स हस्ती स्वप्नहस्तिवत् । केनाप्यशाकि चंपेशशिबिरे
सौप्तिकागतः || २९२ ॥
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