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का भी प्रभाव दृष्टिगोचर होता है - यथा - सुलाकर और मायामयी शिशु को रखकर भगवान् को बाहर लाता है और इन्द्राणी को सौंपता है :
दिगम्बर परम्परा में पद्मचरित में भी सुमेरु के कंपित होने का उल्लेख है जो कि श्वे० विमलसूरि कृत प्राकृत 'पउमचरित' का अनुकरण प्रतीत होता है। पीछे अपभ्रंश चरितकारों ने भी इनका अनुकरण किया है ।
चतुर्थकाल के
तिलोयपण्णत्ती जैसे प्राचीन ग्रंथ में कहा है कि इस अवसर्पिणी के अंतिम भाग में तैंतीस वर्षं, आठ मास और पन्द्रह दिन शेष रहने पर वर्ष के प्रथम मास श्रावण कृष्णा प्रतिपदा के दिन अभिजित नक्षत्र के समय में घर्मतीर्थ भी उत्पत्ति हुई । इसी बात को कुछ पाठभेद के साथ भी वीरसेनाचार्य ने कसाय पाहुडसुत्त की जयधवला टीका में इस प्रकार कहा है ।
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इस भरत क्षेत्र में अवसर्पिणी काल के चौथे दुःषमा सुषमा काल के नौ दिन और छह मास से अधिक तैंतीस वर्ष अवशेष रहने पर धर्मतीर्थ की उत्पत्ति हुई ।
भगवान महावीर की दीक्षा के समय दिगम्बर परम्परानुसार उनके माता-पिता उपस्थित थे । परन्तु श्वेताम्बर मान्यतानुसार उस समय माता-पिता का स्वर्गवास हुए लगभग दो वर्ष हो गये थे । रयधु कवि ने महावीर चरिउ में कहा है
भगवान् महावीर जब दीक्षार्थं वन को जा रहे थे, तब उनके वियोग से विह्वल हुई त्रिशला माता पीछे-पीछे जाते हुए जो उसके करुण विलाप का चित्र खींचा है। वह एक बार पाठक के आँखों में आंशों लाये बिना नहीं रहेगा । विलाप करती हुई माता वन के भयानक कष्टों का वर्णन कर भगवान् महावीर को लौटाने के लिए जाती है, मगर महत्तरजन उसे ही समझा-बुझाकर वापस राजभवन भेज देते हैं ।
कुमुदचन्द्र ने अपने महावीर रास की रचना राजस्थानी हिन्दी में की है और कथानक वर्णन में प्रायः सकलकीर्ति के वर्धमान चरित्र का ही अनुसरण किया है । रचना मृगसिर मास की पंचमी रविवार को पूर्ण हुई है ।
इसकी
कवि नवल शाह ने अपने वर्धमान पुराण की रचना हिन्दी भाषा में की है और कथानक वर्णन में भी सकलकीर्ति का अनुसरण किया है फिर भी कुछ स्थानों पर कवि ने तात्विक विवेचन में तत्त्वार्थ सूत्र आदि का आश्रय लिया है । कवि ने इसकी रचना वि० सं० १८२५ के चैत सुदी १५ को पूर्ण की है ।
यह पुराण सुरत से मुद्रित हो
चुका है।
स्वयं पालि त्रिपिटक में इस बात के प्रचुर प्रमाण पाये जाते हैं कि महावीर आयु में और तपस्या में बुद्ध से ज्येष्ठ थे और उनका निर्वाण भी बुद्ध के जीवनकाल में ही
हो गया था ।
-अधिकार १, गा ६८-७०
२ - जयधवला भाग १ पृ० ७४
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