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( १२३ ) स्वरूप कहा। विवेक की व्याख्या करते हुए विरमण ( =मन की निवृत्ति अथवा निज स्वरूप में लौटने की प्रक्रिया ) का कथन किया और विरमण की व्याख्या करते हुए पापकर्मों ( अशुभ अव-आत्मा की मलिन अवस्था में गति) को नहीं कहने का कहा ।
नहीं अन्य कोई भ्रमण या ब्राह्मण-जो ऐसा धर्म कह सके। तो फिर इससे श्रेष्ठ धर्म का उपदेश कौन दे सकता है ? अर्थात कोई नहीं ।
इस प्रकार कहकर, जिस दिशा से आये थे-उसी दिशा में वापस गये । भगवान की धर्म देशना से प्रभावित होकर कूणिक को श्रद्धा होना ।
तएणं से कूणिए राया भिंभसारपुत्ते समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्म सोच्या णिसम्म हहतुट्ठ xxx हियए उहाए उठे इ, २त्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिणं करेइ, २ त्ता चंदइ णमंसइ,वंदित्ता णमंसिना एवं वयासी
सुयक्खाए ते भंते ! निग्गंथे पावयणे। xxx। किमंग पुण एत्तो उत्तरतरं?एवं वंदित्ता जामेव दिसं पाउन्भूए तामेव दिसं पडिगए।
-ओव० सू०८. तब भंभसार का पुत्र कोणिक राजा, श्रमण भगवान महावीर के समीप धर्म को सुनकर हृदय में धारण कर, हर्षित, संतुष्ट, यावत् विकसित हृदय वाला हुआ और उठ खड़ा हुआ।
श्रमण भगवान महावीर की तीन बार आदक्षिणा-प्रदक्षिणा की, वंदना की और नमस्कार किया।
भंते ! आपने निर्ग्रन्थ प्रवचन सुन्दर रूप से कहा। इसी प्रकार सुप्रज्ञप्त, सुभाषित, सुविनीत, सुभावित और अनुत्तर है । भंते ! जड़-चेतन की ग्रंथियों का मोचक है। आपका उपदेश ।
नहीं है अन्य कोई श्रमण या माहण-जो ऐसा धर्म कह सके। तो फिर इससे श्रेष्ठ धर्म का उपदेश कौन दे सकता है ? अर्थाद कोई नहीं ।
भगवान की धर्म-देशना से प्रभावित होकर सुभद्रा प्रमुख देवियों को श्रद्धा होना
तए णं ताओ सुभहापमुहाओ देवीओ समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्म सोचा णिसम्म हतुट्ट xxx हिययाओ उहाए उट्टे ति, २ त्ता
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