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( १६९ ) सर्वत्रास्थानतो दिक्षु सर्वासु जायतेऽहंतः । शतयोजन मात्रं व सुभिक्षमीतिवर्जनम् ॥५३|| विश्वभव्योपकारार्थ व्रजत्येष नमोऽङ्गणे । नानादेशाद्रिपुर्यादीन् धर्मचक्रपुरःसरः ॥५४॥
-वीरवर्धमानच० अघि १९ भगवान् महावीर के विहार स्थल
देवों के द्वारा उत्तम चंवरों से वीज्यमान, द्वादश गुणों से आवृत्त, श्वेत तीन छत्रों से शोभित और उत्कृष्ट विभूति से विभूषित भगवान ने करोड़ों बाजों के बजने पर संसार को संबोधन के लिए विहार करना प्रारंभ किया।
उस समय करोड़ों पटह ( ढोल ) और तयों ( तुरई ) के बजने पर तथा चलते हुए देवों से तथा छत्र ध्वजा आदि की पंक्तियों से आकाश व्याप्त हो गया।
हे ईश, जगत के जीवों के शत्रुभूत मोह को जीतनेवाले आपकी जय हो, आप आनन्द को प्राप्त हों, इस प्रकार से जय, नन्द आदि शब्दों की तीन लोक में घोषणा करते हुए देवगण भगवान को सर्व ओर से घेरकर निकले।
सुर-असुर देवगण जिनके अनुगामी है -- ऐसे श्री वीर जिनेन्द्र अनिच्छापूर्वक गति को प्राप्त हुए सूर्य के समान विहार करने लगे।
विहार करते समय सर्वत्र भगवान के अवस्थान से सर्व दिशाओं में सौ योजन तक सभी इति-भीतियों से रहित सुभिक्ष ( सुकाल ) रहता है ।
धर्मचक्र जिनके आगे चल रहा है, ऐसे वीरप्रभु ने संसार के भव्य जीवों के उपकार के लिए गमनांगण में चलते हुए अनेक देश, पर्वत और नगरादि में विहार किया। (अ) ततः सपरिवारोऽपि स्वामी सिद्धार्थनन्दनः । विहरन्नन्यतोऽगच्छत् सयुथ इव हस्तिराट् ॥१४॥
-त्रिशलाका पर्व १०/सर्ग १० श्री वीरप्रभु युथसहित गजेन्द्र की तरह वहाँ ये अन्यत्र विहार किया । (राजगृह से) (ट) राजगृह से अन्यत्र विहार
भन्यानां प्रतिबोधाय ततश्च भगवानपि । सुरासुरैः सेव्यमानो विजहार वसुन्धराम् ॥१६॥
–त्रिशलाका पर्व १०/सर्ग १२ भगवान महावीर स्वामी सुर-असुरों से सेवित होने पर भी भव्यजनों के प्रतिबोधार्थ वहाँ से अन्यत्र विहार किया।
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