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उस काल उस समय में श्रमण भगवान् महावीर विशाखा नामक नगरी के बहुपुत्रिक चैत्य में पधारे। उस समय शकेन्द्र भगवान् के पास आया - वंदन नमस्कार किया । उसके साथ अभियोगिकदेव थे। उन्होंने बतीस पुकार के नाटक दिखलाये ।
(झ) आपापा में शक्रेन्द्र का आगमन
शुश्रूषमाणास्तत्रास्थुर्यथास्थानं सुरादयः ।
एत्य नत्वा सहस्राक्ष इति स्वामिनमस्तवीत् ||४|| - त्रिशलाका० पर्व १० / सर्ग १३
अपापा नगरी में श्रमण भगवान् महावीर के दर्शनार्थ शकेन्द्र भी आया । (ञ) शक्र - इन्द्र का परिवार सहित विपुलाचल पर्वत परनाऊण देवराया, विजलमहागिरिबरे जिणवरिदं । एरावणं वलग्गो हिमगिरिसिहरस्स संकासं ||३८|| सामाणियपरिकिण्णो, अच्छरसुग्गीय माणमाहप्पो । सव्वसुरासुरसहिओ, विउलगिरिं आगओ इन्दो || दट्ठण जिणवरिन्दं, करयलजुयलं करीय सीसम्म | सक्को पहठ्ठमणसो, थोऊण जिणं समादत्तो ॥
- पउच• अघि २ / श्लो ३८, ४१-४२
थोऊण देवराया, अन्नेवि उव्विहा भावेण उवविट्ठा
कयपणामा,
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सुरनिकाया । सन्निवेसे
विपुल नामक पर्वत पर जिनवरेन्द्र पधारे है ऐसा अवधि ज्ञान से जानकर देवेन्द्र हेमगिरि के एक शिखर- सरीखे अपने ऐरावत हाथी पर चढा । सामानिक देवों से घिरा हुआ तथा अप्सरायें जिसका महात्म्य गा रही थी- ऐसा इन्द्र सभी सुर-असुरों के साथ विमलगिरि पर्वत पर आया । जिनवरेन्द्र को देखते ही दोनों हाथ मस्तक पर जोड़कर मन में आनन्दित होता हुआ वह भगवान की इस प्रकार स्तुति करने लगा ।
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- पउच० अघि २ / श्लो ४७
इस प्रकार स्तुति करने के पश्चात् देवेन्द्र तथा दूसरे भी चारों निकायों के देव भावपूर्वक प्रणाम करके अपने-अपने योग्य स्थान में जा बैठे ।
(ट) मलयटीका - ततो भयवं संपातो निग्गतो जंभियगाम गतो x x | जहाएत्तिरहिं दिवसेहिं केवलनाणमुप्प जिहिइ, ततो लामी मिढियगाम गतो, तत्थ चमरो वंदतो पिय पुच्छओ य एह, वंदित्ता पुच्छित्ता य पडिगतो अमु
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