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( २३३ ) मलयटीका-आलभिकायां नगर्यां भगवतः प्रियपृच्छको हरिनामाविद्युत्कुमारेन्द्र आगच्छति, वदति च -जिता भगवन् ! सर्वे उपसर्गाः, स्तोकमघशेष तिष्ठति । (घ) २ ततश्च विहरन् स्वामी पुरीमालभिकां ययौ।
तस्थौ प्रतिमया तत्रालेख्यस्थ इच सुस्थिरः॥ तत्र विद्युत्कुमारेन्द्रो नाम्ना हरिरिति प्रभुम् । एत्य प्रदक्षिणी कृत्य प्रणम्यैवमवोचत । उपसर्गास्त्वया नाथ! ते सोढा यैः श्रुतैरपि । अस्माहशा विदीर्यन्ते वज्रादप्यतिरिच्यसे॥ स्तोकेनाप्युपसर्गेण घातिकर्मचतुष्टयम् । हनिष्यस्य चिरादेव केवलं चार्जयिष्यसि ।। इत्युदित्वा भगवन्तं नमस्कृत्य च भक्तितः । हरिविद्युत्कुमारेन्द्रो ययौ निजनिकेतनम् ॥
. त्रिशलाका० पर्व १०/सर्ग ४ श्लो ३२२ से ३२६ जब भगवान आलभिका नगरी पधारे उस समय हरि नामक विद्युतकुमार के इन्द्र का आगमन हुआ। भगवान को वंदन-नमस्कार कर बोला-हे नाथ ! आपने जिन उपसर्गों को सहन किया-उनको हमारे जैसा व्यक्ति सुने तो हृदय विदीर्ण हो जाता है। आप वज्र से भी अधिक कठिन है। हे भगवान ! अब आपको थोड़े बहुत उपसर्ग सहन कर चार धन घानितिक कर्मों का क्षय कर थोड़े दिनों में केवलज्ञान-केबलदर्शन होगा। ऐसा कहकर भगवान को भक्ति पूर्वक नमस्कार कर अपने स्थान चला गया। (घ) हरिसह सेयषियाए xxx।
-आब• निगा ५१५/पूर्वाध टीका-ततो भगवान् श्वेतम्ब्यांनगांगतः तत्र हरिस्सहनामाविद्युत्कुमारराजः प्रियपृच्छकआगतः ।
भगवानपि निर्गत्य नगरी श्वेतवीं ययौ । विद्यु दिन्द्रो हरिसहस्तव्याऽवन्दत प्रभुम् ॥ आख्याय सोऽपि हरिवजगाम निजमाश्रयम् ॥
-त्रिशलाका /पर्व १०/सर्ग ४/श्लो ३२७, २८ पूर्वाध जब भगवान् बालभिका नगरी से विहार कर श्वेताम्बिका का नगरी पधारे उस समय हरिसह नामक विद्युत्कुमारेन्द्र का आगमन हुआ। भगवान को वंदनाकर वापस अपने
स्थान चला गया।
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