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( २४२ ) ' . चमरेन्द्र ने कहा- हे देवानुप्रियो ! अपने सब चलें और श्रमण भगवान महावीर स्वामी को वन्दना-नमस्कार करें यावत उनकी पर्युपासना करे। ऐसा कहकर वह चमरेन्द्र चौसठ हजार सामानिक देवों के साथ यावत् सर्व ऋद्धि पूर्वक यावत् उस उत्तम अशोक, वृक्ष के नीचे, जहाँ मैं था वहाँ आया। मुझे तीन बार प्रदक्षिणा करके यावत् वंदनानमस्कार करके इस प्रकार बोला-हे भगवन् ! आपका आश्रय लेकर मैं स्वयं अपने आप अकेला ही देवेन्द्र देवराज शक को उसकी शोभा से भ्रष्ट करने के लिए सौधर्म कल्प में गया था, यावत् आप देवानुप्रिय का भला हो कि जिनके प्रभाव से मैं क्लेश पाये बिना यावत् विचरता हूँ। हे देवानुप्रिय ! उसके लिए आप से मैं क्षमा मांगता हूँ ।” यावत् ऐसा कहकर वह ईशानकोण में चला गया, यावत् उसने बत्तीस प्रकार की नाटक विधि बतलाई । - फिर वह जिस दिशा से आया था-उसी दिशा में चला गया । (ण) शकेन्द्र का आवागमन
वज्र को ग्रहण करने के लिए-आवागमन
xxx हा ! हा ! अहो। हतो अहम सित्ति कटुत्ताए उक्किट्ठाएं जाव दिव्वाए देवगईए वजस्स वीहिं अणुगच्छमाणे-अणुगच्छमाणे तिरियमसंखेज्जाण दीव-समुद्दाण मज्झमझेण जाव जेणेव असोगवरपायवे, जेणेव ममं अंतिए तेण व उवागच्छइ, उवागच्छित्ता ममं चउरंगुलमसंपत्तं वज्ज पडिसाहरइ, अवियाई मे गोयमा ! मुहिवाएण केसग्गे वीइत्था ।। १९५॥
तएण' से सक्के देविदे देवराया वज्ज पडिसाहरित्ता मम तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिण करेइ, करेत्ता वंदइ नमसइ, वंदित्ता नम सित्ता एवं 'वयासि-एवं खलु भंते! अहं तुभं नीसाए चमरेण असुरिंदेण असुररण्णा सयमेव अच्चासाइए । तएण ममं परिकुविएण' समाणेण चमरास्स असुरिंदस्स असुररपणो बहाए वज्जे निस?। तएण मम इमेयारूवे अन्झथिए। चिंतए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पजित्था-नो खलु पभू वमरे असुरिंदे असुरराया, नो खलु समत्थे चमरे असुरिंदे असुरराया, नो खलु विसए चमरस्स असुरिंदस्स असुररण्णो अप्पणो निस्साए उड्ढे उप्पइत्ता जाव सोहम्मो कप्पो, नण्णत्य अरहते वा, अरहंतचेइयाणि वा, अणगारे वा भाविअप्पाणो नीसाए उड्डे उप्पयइ जाव सोहम्मो कप्पो, तं महादुक्खं खलु तहारूवाण अरहताण भगवंताण अणगाराण य अश्चासायण्णाए त्ति कटु ओहि पउजामि, देवाणुप्पिए ओहिणा आभोएमि, आभोएत्ता हा! हा! अहो! हतो अहम सि त्ति कटु ताए उक्किठाए जाव जेणेव देवाणुप्पिए तेणे व उवागच्छामि, देवाणुप्पियाण चउरंगुलमसंपत्तं वज' पडिसाहरामि वजपडिसाहरणट्ठयाए इहमागए इह
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