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( १७३ ) तत्पश्चात अमण भगवान महावीर अन्यथा--किसी समय वाराणसी नगरी के कोष्ठक चैत्य से निकलकर बाहर जनपद में विहरण करने लगे।
(ग) तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे जाव जेणेव वाणारसी नयरी जेणेव कोट्ठए चेइए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अहापडिरूवं ओग्गहं ओगिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावमाणे विहरइ ॥७॥
तएणं समणे भगवं महावीरे अण्णदा कदाइ वाणारसीए नयरीए कोट्ठयाओ चेइयाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता बहिया जणवयविहारं विहरइ ॥१५॥
-उवा० अ४
उस काल उस समय में श्रमण भगवान महावीर जहाँ वाराणसी नगरी थी। जहाँ कोष्ठक नामक उद्यान था वहाँ पधारे। पधार कर यथारूप अवग्रह ग्रहण कर संयम-तप से अपनी आत्मा को भावित करने लगे।
अन्यदा श्रमण भगवान महावीर वाराणसी नगरी के कोष्ठक उद्यान में निकलकर बाहर जनपद में विहरण करने लगे।
(घ) तेणं कालेणं तेणं समएणं वाणारसी मयरी। काममहावणे चेइए ॥९७||
तत्थणं वाणारतीए अलक्के नाम राया होत्था ॥९८॥
तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे जाव विहरइ। परिसा निग्गया ||९५॥
-अंत० व ६/अ १६ उस काल-उस समय में वाराणसी नाम की नगरी थी। वहाँ काममहावन चैत्य था। अलक्ष नाम का राजा राज्य करता था। उस काल, उस समय में भमण भगवान महावीर वाराणसी नगरी के बाहर काममहावन उद्यान में पधारे। परिषद् उनके दर्शनार्थ आयी। '२२ राजगृह नगर से पृष्ठ चंपा की ओर विहार
श्री वीरोऽपि ततः स्थानाविहरन् सपरिच्छदः । सुरासुरैः सेव्यमानः पृष्ठचंपापुरी ययौ ॥ १६६ ॥ सालो राजा महासालो युवराजश्व वान्धवौ। त्रिजगद् वान्धवं वीरं तत्र वन्दितुमेयतुः ॥ १६७ ॥
त्रिशलाका० पर्व १०/सर्ग.
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