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( २.७ ) समाणेहह-जाव समणं भगवंतं महावीरं वंदंति नमसति वंदित्ता नमंसित्ता नचासण्णे नातिदूरे सुस्सूसमाणे णमंसमाणे अभिमुहे विणएणं पंजलिउडे पज्जुवासति ॥५०॥
तएणं समणे भगवं महावीरे सूरियाभस्स देवस्स तीसेय महतिमहालिताए परिसाए जाव परिसा जामेव दिसि पाउब्भूया तामेव दिसिं पडिगया ॥५१॥
सुर्याभदेव चार हजार अग्रमहिषी देवियों यावत सोलह हजार आत्मरक्षकदेव और भी बहुत सुर्याभ विमानवासी वैमानिक देव-देवियों के साथ परिवार से परिवारा हुआ, सर्वदेव सम्बन्धी ऋद्धियुक्त यावत वादित्र के झणकारयुक्त जहाँ श्रमण भगवान महावीर स्वामी थे-वहाँ आया।
___वहाँ भाकर भ्रमण भगवान महावीर को तीन बार उठ-बैठकर, हाथ जोड़कर प्रदक्षिणावर्त फिराये-ऐसे किया । ऐसा करके वन्दन नमस्कार किया ।
वंदन-नमस्कार करके ऐसे कहने लगा-अहो भगवान ! मैं सुर्यामदेव देवानुप्रिय को वंदन-नमस्कार करता हूँ यावत् पर्युपासना करता हूँ।
श्रमण भगवान महावीर सुर्याभदेव को ऐसे बोले१. अहो सुर्याभदेव ! -यह तुम्हारा पुराना आचार है । २. अहो सुर्याभदेव ! -यह तुम्हारा जीताचार है। अर्थात् जो जो सुर्याभदेव
___हुए है उन्होंने तीर्थंकर को इसी प्रकार वंदन किया है। ३. अहो सुर्याभदेव ! -यह तुम्हारा कर्तव्य है । ४. अहो सुर्याभदेव ! यह तुम्हारी करणी है । ५. अहो सुर्याभदेव ! -यह आचरण करने योग्य कार्य है । ६. अहो सुर्याभदेव ! -इस कर्तव्य की तीर्थकरों ने आशा दी है।
अस्त सुर्याभ ! जो-जो भवनपति, वाणव्यंतर, ज्योतिषी व वैमानिकदेव है-वे सब अरिहंत भगवंत को वंदन करते हैं, नमस्कार करते हैं—फिर अपना नाम गोत्र कहते हैं अतः अहो सुर्याम ! यह तुम्हारा पुराना कर्तव्य है यावत तीर्थकरों ने आज्ञा दी है ।
तब सूर्यायदेव श्रमण भगवान महावीर का उक्त कथन श्रवण कर हर्ष-सन्तोष को प्राप्त हुआ। भमण भगवान महावीर को वंदन-नमस्कार किया। वन्दन-नमस्कार कर नीचे आसनसे न बहुत दूर न बहुत नजदीक सुश्रुषा करता हुआ, नम्रता धारण करता हुआ भगवान् के सन्मुख हाथ जोड़कर सेवा करने लगा।
तव श्रमण भगवान महावीर ने सूर्याभदेव तथा उस बड़ी परिषद् को धर्मोपदेश दिया।
धर्मकथा श्रवण कर परिषद् जिस दिशा से आयी-वापस गयी।
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