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( २.८ ) (ख) तएणं से सूरियाभे देवे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्म __. सोचा निसम्महतुट्ठजाव-हयहियए उठाए उहति उहित्ता समणं भगवंतं महावीरं वंदइ नमसइ वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी
अहं णं भंते ! सूरियाभे देवे किं भवसिद्धिते अभवसिद्धिते ? सम्मदिठ्ठी मिच्छादिट्ठी परित्त-संसारिते अणंतसंसारिते ? सुलभ बोहिए दुल्लभ बोहिए ? आराहते विराहते ? चरिमे अचरिमे १ ॥५२॥
सूरियाभाइ समणे भगवं महावीरे सूरियाभं देवं एवं वयासी--
सूरियाभा! तुम णं भवसिद्धिए नो अभवसिद्धिते जाव चरिमे णो अचरिमे ॥५३॥
तएणं से सुरियाभे देवे समणेणं भगवया महावीरेणं एवं वुत्ते समाणे हद्वतुट्ठचित्तमाणंदिए परमसोमणस्सिए समणं भगवंतं महावीरं वदति नमसति वंदित्ता नमसित्ता एवं वयासी
तएणं से सुरियाभे देवे समणं भगवतं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेइ वंदति नमंसति वंदित्ता नमंसित्ता नियगपरिवालसद्धि संपरिखुडे तमेव दिव्वं जाणविभाणं दुरूहति दुरूहित्ता जामेवदिसि पाउन्भूए तामेव दिसिं पडिगए ॥८९॥
-गय० सू० ४६, ५०, ५१, ५२ से ५४, ८६
तब सूर्याभदेव श्रमण भगवान महावीर के समीप धर्म श्रवण कर, अवधारण कर हर्षसन्तोष को प्राप्त हुया, हृदय विकसायमान हुआ, उठा, खड़ा हुआ।
खड़ा होकर श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन-नमस्कार किया। वन्दन नमस्कार कर ऐसा कहने लगा--
__ अहो भगवान् ! मैं सूर्याभदेव क्या ! भवसिद्धिक हूँ या अभवसिद्धिक हूँ ? सम्यग् दृष्टि हूँ या मिथ्यादृष्टि हूँ ? परित्त संसारी हूँ या अनंत संसारी हूँ! सुलभबोधी हूँ या दुलमबोधी ! आराधक हूँ या विराधक हूँ? चरिम हूँ या अचरिम हूँ। अर्थात यह मेरा देव सम्बन्धी भव अन्तिम है या और भी मुझे करना पड़ेगा !
प्रत्युत्तर में श्रमण भगवान् महावीर-सुर्याभदेव को ऐसा बोले-हे सुर्याम ! १-तुम भवसिद्धिक हो परन्त अभवसिद्धिक नहीं हो। २-तुम सम्यग् दृष्टि हो परन्त मिथ्यादृष्टि नहीं हो। ३--तुम परित्त ( अल्प ) संसारी हो परन्तु अनंत संसारी नहीं हो। ४-तुम सुलभबोधी हो परन्तु दुर्लभबोधी नहीं हो ।
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