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. २७ तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नामं नयरे होत्था वण्णओ ॥ २ ॥ तत्थणं धणे नामं सत्थवाहे । भद्दाभारिया || ३ ||
पधारे ।
तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे रायगिहे नयरे गुणसिलए समोसढे ॥५८॥
- नाया० श्रु १/सू १८
उस काल उस समय में राजगृह नामक नगर था । वहाँ धनासार्थवाह रहता था। भद्रा उसकी भार्या थी ।
उस काल उस समय में श्रमण भगवान् महावीर राजगृह नगर के गुणशिलक चैत्य में
. २८ ग्रामानुग्राम विहार करते हुए भगवान राजगृह के बाहर स्थित विपुलाचल पर्वत पधारे ।
इत्येषोऽतिशय दिव्यैश्चतुस्त्रिंशत्प्रमाणकैः । प्रातिहार्याष्टकैः संज्ञानाद्यनन्तचतुष्टयैः ॥७९॥ अभ्ये रन्तातिगैर्दिव्ये गुंणेश्वालंकृतः प्रभुः । नानादेशपुरग्रामखेटान् वै विहरन् क्रमात् ||८०|| धर्मोपदेशपीयूषैः प्रीणयन् सज्जनान् बहून् । मुक्तिमार्गे सतोऽनेकान् स्थापयंस्तत्त्वदर्शनैः ॥ ८१ ॥ मिथ्याज्ञानकुमार्गान्धतमो निघ्नन् वचोऽशुभिः । रत्नत्रयात्मकं मुक्तिमार्ग' व्यक्तं प्रकाशयन् ||८२||
सम्यक्त्वज्ञानचारित्रतपोदीक्षामहामणीन् । समीहितान् ददन्नित्यं भव्येभ्यः कल्पशाखिवत् ॥८३॥ संघदेववृ तो राजगृहाबाह्यस्थितस्यच ।
विपुलाच तुङ्गस्योपरि धर्माधिपोऽगमत् ॥ ८४ ॥
- वीरवर्धच • / अधि - १६ / श्लो ७६ से ८४
चौतीस दिव्य अतिशयों से, आठ प्रतिहार्यों से, सद्ज्ञानादि अनंत चतुष्टय से एवं अन्य अनंत दिव्यगुणों से अलंकृत वीरप्रभु ने अनेक देश पुर-ग्राम-खेटों में क्रमशः विहार करते हुए, धर्मोपदेश रूपी अमृत के द्वारा सज्जनों को तृप्त करते, बहुतों को मुक्तिमार्ग में स्थापित करते, अनेकों का तत्त्व-दर्शन रूप वचन-किरणों से मिथ्यात्व ज्ञान रूप कुमार्ग के गाद अन्धकार को हरते, मुक्ति का मार्ग स्पष्ट रूप से प्रकाशित करते, भव्य जीवों के लिए
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