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इच्छाऽनुरूपस्वाम्याज्ञामुदितो गौतमो मुनिः । वायुवच्चारणलब्ध्या क्षणादष्टापदं ययौ ॥१८४॥ इतश्चाष्टापदं मोक्षहेतुं श्रुत्वा तपस्विनः । कौडिन्यदत्तसेवाला आरोढुं समुपरिस्थताः ॥१८५।। चतुर्थकत्सदाप्याद्य आद्र कन्दादिपारणः । प्रापाऽऽद्यां मेखलां सार्ध पंचशत्या तपस्विनाम् ।।१८६।।
- त्रिशलाका पर्व १०/सर्ग: तत्पश्चात् गौतम स्वामी खेद को प्राप्त होकर चिन्तन करने लगे--- "क्या मुझे केवल ज्ञान उत्पन्न नहीं होगा ? क्या मैं इस भव में सिद्धत्व को प्राप्त नहीं होऊँगा। ऐसा विचार कर ही रहे थे कि उसी समय जो अष्टापद पर स्वयं की लब्धि से जाकर वहाँ स्थित जिनेश्वरों को नमस्कार करें-एक रात्रि वहाँ रहे --- वह उस भव में सिद्धि को प्राप्त होता है ।
इस प्रकार अरिहंत भगवंत ने देशनां में कहा है। ऐसा स्वयं को देवताओं का कहा हुआ है--ऐसा यादकर, देव वाणी की प्रतीती आने से तत्काल गौतम स्वामी अष्टापद पर स्थित जिनबिम्बों का दर्शन करने के लिए वहाँ जाने की इच्छा की और भगवान से आज्ञा मांगी।
___ वहाँ भविष्यत में तापसों को प्रतिबोध होगा-ऐसा जानकर--प्रभु ने अष्टापद तीर्थ पर तीर्थ करों को वंदन करने की आज्ञा दी।
फलस्वरूप स्वयं की इच्छानुसार प्रभु की आज्ञा होने से गौतम स्वामी हर्षित हुए और चारण लब्धि से वायु की तरह वेग से क्षणभर में अष्टापद पर्वत के समीप पधारे ।
उस वर्ष में कौडिन्या दत्त और सेवाल आदि १५०० तपस्वी गण अष्टापद को मोक्ष का हेत सुनकर वे सभी गिरि पर चढ़कर आये थे।
उनमें से पाँच सौ तपस्वी चतुर्थं तप करके आर्द्र कंदादि का पारण करते हुए अष्टापद की पहली मेखला तक आये थे ।
द्वितीयः षष्ठकृत्प्राप शुष्ककन्दादिपारणः । द्वितीयां मेखलां सार्ध पंचशत्या तपस्विनाम् ॥१८७।। तृतीयोऽष्टमकृत्प्राप शुष्कसेवालपारणः । तृतीयां मेखलां साधं पंचशत्या तपस्विनाम् ॥१८८।। ऊर्ध्वमारोढुमसहास्ते तस्थुर्यायवदुन्मुखाः । ददृशुगौतमं तावत् स्वर्णाभं पीवराकृतिम् ॥१८५।। ते मिथः प्रोचिरे शैलं वयमेतं कृशा अपि । न रोढुमीश्महे स्थूल आरोक्ष्यत्येष तत्कथम् ॥१९०।।
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