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( ७४ ) चवर्थ महाव्रत १८-स्त्री की इन्द्रियों ( अवयव ) को देखने का वर्जन करना
१६-पूर्वरत ( मैथुन) का और पूर्व की कीड़ा का स्मरण न करना २०-प्रणीत ( रस सहित) आहार का वजन करना
२१-श्रोत्रेन्द्रिय के राग का त्याग पंचम महावत २२-चक्षुरिन्द्रिय के राग का त्याग
२३-घ्राणेन्द्रिय के राग का त्याग २४---जिह्वन्द्रिय के राग का त्याग
२५-स्पर्शेन्द्रिय के राग का त्याग टीकार्थ-पंचयाम अर्थात् महावतों का समुदाय-पंचयाम कहा जाता है। उन पांच महाव्रतों की भावनायें-प्राणातिपातादि की निवृत्ति रूप पाँच महावतों के रक्षण के लिए जो भावना की जाती है उसे भावना कहते हैं। और वे भावनायें प्रत्येक महावत की पाँचपांच है।
१-उनमें ईर्या समिति आदि पाँच भावनायें प्रथम महायत की है। उनमें चतुर्थ भावना-'आलोकभाजनभोजन, अर्थात देखकर भाजन में अर्थात पात्र में भोजन -भातपानी का आहार करना। क्योंकि देखे बिना भाजन में जो भोजन करने में आता है तो उससे प्राणी की हिंसा संभव है।
तथा विचार कर बोलना आदि दूसरे महाव्रत की पाँच भावनायें हैं। उनमें विवेक अर्थात त्याग करना-ऐसा अर्थ है । तथा अवग्रह की अनुज्ञापना (जानना) आदि तीसरे व्रत की पाँच भावनायें हैं। उनमें १-प्रथम-अवग्रहानुज्ञापना अर्थात अवग्रह की अनुशा लेनी। उनके स्वामी के पाससे अवग्रह मांग लेना ।।
२-अवग्रह की अनुज्ञा करने के बाद उसकी सीमाहद का जानना-दूसरी भावना ।
३-सीमा जानने के बाद स्वयं ही उग्गहणं इति अर्थात् अवग्रह को ग्रहण करना अर्थात बाद में स्वीकार कर उसमें रहना-तीसरी भावना ।
४-साधार्मिक अर्थात् गीतार्थ समुदाय में विचरते हुए संविग्न साधुओं का अवग्रह कि जो एक मास आदि काल के प्रमाण थे पाँच गाउ आदि प्रमाण के क्षेत्रवाला साधार्मिक का अवग्रह होता है वही साधार्मिक की अनुज्ञा लेकर उनकाही भोग करना अर्थात् वहाँ ही रहना अर्थात् साधार्मिक के क्षेत्र में वसति में उनकी अनुज्ञा लेकर ही रहना-चतुर्थ भावना ।
५-तथा जो सामान्य भक्तादिक आया हुआ हो-वह आचार्यादिकी भी आशा लेकर आहार करना-पाँचवीं भावना ।
तथा स्त्री आदि संबंध वाले आसन. शयनादिक का त्याग करना-चतुर्थ व्रत की भावना है।
उनमें प्रणीत आहार-अति स्नेह वाला जानना ।
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