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( ७८ ) नो अट्ठो, अस्थि से अण्णे पारियासिए मजारकडए कुक्कुडमसए, तमाहराहि, एएणं अट्ठो । xxx १५२ ।
तएणं से सीहे अणगारे समणेणं भगवया महावीरेणं एवं वुत्ते समणे हट्ठतुट्ठ जाव हियए समणं भगवं महावीरं वंदइ णमंसइ, वंदित्ता णमंसित्ता अतुरियमचवलमसंभंतंxxxतेणेव x x x उवागच्छित्ता में ढियगाम णयरं मझमज्झेणं जेणेव रेवईए गाइवइणीए गिहे तेणेव उवागच्छ । xxx१५३ ।
तएणं सा रेवई गाहावाणी सीहं अणगारं एवं वयासी-केस णं सीहा । से णाणी वा तवस्सी वा, जेण तव एस अट्ठ मम ताव रहस्सकडे हव्वमक्खाए, जओणं तुम जाणासि ? एवं जहा खंदए जाव जओणं अहं जाणामि। १५६१५७।
तएणं सा रेवई गाहावाणी सीहस्स अणगारस्ल अंतियं एयम सोच्चा णिसम्म हट्ठ-तुट्ठा जेणेव भत्तघरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पत्तगं मोएइ, मोएत्ता जेणेव सीहे अणगारे तेणेव उवागच्छद उवागच्छित्ता सीहस्स अणगारस्त पडिग्गहगंसि तं सव्वं सम्म णिस्सिरइ ? । १५८ ।
तएणं तीए रेवईए गाहावईणीए तेणं वसुद्धणं जाव दाणेणं सीहे अणगारे पडिलाभिए समाणे देवाउए णिबद्ध , जहा विजयस्स जाव जम्मजीवियफले रेवईए गाहावइणीए रेवई ।१५९।
-भग• श १५/सू १४३ से १४५, १५२-१५८ ( लगगग छप्पन वर्ष की अवस्था में ) किसी दिन श्रमण भगवान महावीर स्वामी श्रावस्ती नगरी के कोष्ठक उद्यान से निकल कर अन्य देशों में विचरने लगे।
उस समय में ढिक ग्राम नगर में रेवती नाम की गाथापत्नी रहती थी। वह आय यावत् अपरिभूत थी। अन्यदा श्रमण भगवान महावीर स्वामी अनुक्रम से विहार करते हुए में ढिक ग्राम नगर के बाहर शाल-कोष्ठक उद्यान में पधारे, यावत् परिषद् वंदन करके लौट गई।
सिंह ! तु में दिक ग्राम नगर में रेवती गाथापत्नी के घर जा। उस रेवती गाथापत्नी ने मेरे लिए दो कोहला के फलों को संस्कारित कर तैयार किया है। उनसे मुझे प्रयोजन नहीं है, परन्तु उसके वहाँ मार्जार नामक वायु को शांत करनेवाला बिजोरापाक जो कल तैयार किया हुआ है, उसे ला । वह मेरे लिए उपयुक्त है ।
श्रमण भगवान महावीर स्वामी के आदेश को पाकर सिंह अनगार प्रसन्न एवं संतुष्ट यावत प्रफुल्लित हुए और भगवान महावीर को वंदन-नमस्कार करके त्वरा, चपलता और उतावल से रहित रेवतीगाथापत्नी के घर पहुँचे ।
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