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( ६६ ) नगर के बाहर बहुशाल नामक उद्यान में पधारे है और यथायोग्य अवग्रह ग्रहण करके यावर विचरते हैं।
इसीलिए-ये उग्र कुल, भोगकुलादि के क्षत्रिय आदि वंदन के लिए जा रहे हैं ।
कंचुकी पुरुष से यह बात सुनकर एवं हृदय में धारण करके जमाली क्षत्रियकुमार हर्षित एवं संतुष्ट हुआ और कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाकर इस प्रकार कहा-हे देवानुप्रियो ! तुम शीघ्र चार घंटा वाले अश्वरथ को जोड़कर यहाँ उपस्थित करो और मेरी आज्ञा को पालन कर निवेदन करो।।
जमाली क्षत्रियकुमार की इस आज्ञा को सुनकर तदनुसार कार्य करके इन्हें निवेदन किया।
तएणं से जमालिखत्तियकुमारे समणस भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्म सोचा, निसम्म हह-तुट्ठ जाव हियए, उट्ठाए, उहइ, उद्वेत्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो जाव णमंसित्ता एवं वयासी-सदहामि णं भंते । णिग्गंथं पावयणं, पत्तियामि णं भंते । णिग्गंथं पावयणं, रोएमि णं भंते । णिग्गंथं पावयणं, अब्भुट्ट मि णं भंते ! निग्गंथं पावयणं, एवमेयं भंते। तहमेयं भंते ! अवितहमेयं भंते ! असंदिद्धमेयं भंते ! जाव से जहेयं तुब्भे वयह, णं णवरं देवाणुप्पिया ! अम्मापियरो आपुच्छामि, तएणं अहं देवाणुप्पियाणं अंतियं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वयामि । अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंधं ।
-भग० श ६/७३३ सू१६४ श्रमण भगवान महावीर स्वामी के पास धर्म सुनकर और हृदय में धारण करके जमाली क्षत्रियकुमार हर्षित और संतुष्ट हृदय वाला हुआ यावत् खड़े होकर श्रमण भगवान महावीर स्वामी को तीन बार प्रदक्षिणा करके वंदन नमस्कार किया और इस प्रकार कहाहे भगवन् ! मैं निर्गन्ध प्रवचन पर श्रद्धा करता हूँ। हे भगवन ! मैं निग्रन्थ प्रवचन पर विश्वास करता हूँ। हे भगवन ! मैं निर्ग्रन्थ प्रवचन पर रूचि करता हूँ। हे भगवन ! यह निर्ग्रन्थ प्रवचन सत्य है, तथ्य है, असंदिग्ध है, जैसा कि आप कहते हैं । हे देवानुप्रिय ! मैं अपने माता-पिता की आशा लेकर, गृहवास का त्याग करके, मुण्डित होकर आपके पास अनगार धर्म को स्वीकार करना चाहता हूँ। भगवान ने कहा-हे देवानप्रिय ! जेसे तुम्हें सुख हो, वैसा करो, धर्म कार्य में समय मात्र भी प्रमाद मत करो।
- जंणं तुमे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्मे णिसंते, से वि य धम्मे इच्छिए, पडिच्छिए, अभिरुइए।
........... -भग० श६/उ३३/सू१६६
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