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था ।
उस ब्राह्मणकुंडग्राम नामक नगर के पश्चिम दिशा में क्षत्रियकुंड ग्राम नामक नगर उस क्षत्रियकुंड ग्राम नामक नगर में जमाली नाम का क्षत्रिय कुमार रहता था । वह आढ्य, ( धनिक ) दीप्त-तेजस्वी यावत् अपरिभूत था । वह अपने उत्तम भवन पर, जिसमें मृदंग बज रहे हैं, अनेक प्रकार की सुन्दर युवतियों द्वारा सेवित है, बत्तीस प्रकार के नाटकों द्वारा हस्त पादादि अवयव जहाँ नचाये जा रहे हैं, जहाँ बार-बार स्तुति की जा रही है ।
अत्यन्त खुशियाँ मनाई जा रही हैं, उस भवन में प्रावृष्ट, वर्षा, शरद, हेमन्त, बसंत और ग्रीष्म - इन छह ऋतुओं में अपने वैभव के अनुसार सुखका अनुभव करता हुआ, समय बिताता हुआ, मनुष्य संबंधी पाँच प्रकार के इष्ट शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गंध - इन काम भोगों का अनुभव करता हुआ रहता था ।
क्षत्रियकुंड ग्राम नामक नगर में शृंगाटक, त्रिक, चतुष्क और चत्वर में यावत् बहुत से मनुष्यों का कोलाहल हो रहा था । यावत् बहुत-से मनुष्य परस्पर इस प्रकार कहते थे कि - हे देवानुप्रियो ! आदिकर ( धर्म - तीर्थ की आदि कहने वाले ) यावत् सर्वज्ञ - सर्वदर्शी श्रमण भगवान महावीर स्वामी, इस ब्राह्मणकुंड ग्राम नगर के बाहर, बहुशाल नामके उद्यान मैं यथायोग्य अवग्रह ग्रहण करके यावत् विचरते हैं । हे देवानुप्रियो ! तथा रूप अरिहंत भगवान के नाम, गोत्र के श्रवण मात्र से भी महाफल होता है, यावद वह जन-समूह एक दिशा की ओर जाता है और क्षत्रियकुंड ग्राम नामक नगर के मध्य में होता हुआ, बाहर निकलता है । और बहुशालक उद्यान में जाता है। वह जन-समूह तीन प्रकार की पर्युपासना करता है ।
तपणं तस्स जमालिस्स खतियकुमारस्स तं महयाजणसहं वा जाव जणसण्णिचायं वा सुणमाणस्स वा पासमाणस्स वा अयं एयारूवे अज्झस्थिर जाब समुप्पज्जित्था - " किं णं अज खत्तियकुंङग्गामे णयरे इदंमहे इ वा खंदमहेवा मगुंदमहे इ वा, नागमहे इ वा, जक्खमहे इ वा, भूयमहे इ वा, कूषमहे इवा, तडागमहे इ वा, गई महे इ वा, दहमहे इ वा, पव्वयमहे इ वा, रुक्महे इ बा, चेइयमहे इवा, थूभमहे इ वा, जं णं एए बहवे उग्गा, भोगा, राइण्णा, इक्खागा, णाया, कोरव्वा, खत्तिया, खत्तियपुत्ता, भडा, भडपूत्ता, जहा ओषधाइए, जाब सत्थवाहप्पभिइओ पहाया, कयबलिकम्मा जहाओधवाइए, जाब णिग्गच्छंति ? एवं संपेद्देह, संपेहित्ता कंचुइज पुरिसं सद्दावेद्द, सद्दावित्ता एवं बयासी - किं णं देवाणुपिया ! अज खत्तियकुंडग्गामे जयरे इंदमहे इ वा जाव णिग्गच्छति ।
तपणं से कंचुइज्जपुरिसे जमालिणा खत्तियकुमारेणं एवं वृत्ते समाणे - तुट्ठे समणस्स : भगवओ महावीरस्स आगमणगहियविणिच्छए कदयल जमालि खन्तियकुमारं जपणं विजयपणं वद्धावेर, बद्धावित्ता एवं वयासी - णो
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