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( ८७ ) ३. सण्णिजाइसरणेणं सण्णिणाणे वा से असमुप्पण्णपुव्वे समुप्पज्जेज्जा-अप्पणो पोराणियं जाई सुमरित्तए।
४. देवदंसणे वा से असमुप्पण्णपुव्वे समुप्पज्जेज्जा दिव्वं देविढिं दिव्वं देषजुई दिव्वं देवाणुभावं पासित्तए ।
५. ओहिणाणे वा से असमुप्पन्नपुव्वे समुप्पज्जेज्जा ओहिणा लोगं जाणित्ताए।
६. ओहिदसणे वा से असमुप्पण्णपुव्वे समुप्पज्जेज्जा ओहिणा लोयं पासित्तए।
७. मणपज्जवणाणे वा से असमुप्पण्णपुग्वे समुप्पज्जेज्जा अंतो मणुस्सक्खित्तेसु अड्ढाइज्जेसु दीवसमुद्देसु सण्णीणं पंचिंदियाणं पज्जत्तगाणं मणोगए भावे जाणित्तए।
८. केवलणाणे वा से असमुप्पण्णपुत्वे समुप्पज्जेज्जा केवलकप्पं लोयालोयं जाणित्तए।
९. केवलदसणे वा से असमुप्पण्णपुव्वे समुप्पज्जेज्जा केवलकप्पं लोयालोयं पासित्तए।
१०. केवलमरणे वा से असमुप्पण्णपुव्वे समुप्पज्जेज्जा सम्वदुक्खप्प हाणाए
-दसासु० द५/सू ३, ४ जिसके द्वारा चित्त मोक्ष मार्ग या धर्मध्यान आदि में स्थिर रहे-उसको चित्तसमाधि कहते है।
हे आर्यो ! श्रमण भगवान महावीर श्रमण निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थियों को आमन्त्रित कर कहने लगे-हे आर्यो! नियन्थ और निर्ग्रन्थियों को ये पूर्व अनुत्पन्न दश चित्त समाधि के स्थान उत्पन्न हो जाते हैं-यथा
१. धर्म की चिंता (अनुप्रेक्षा या भावना) जो पहले अनुत्पन्न है यदि उसको उत्पन्न हो जाय तो वह कल्याण भागी साधु सब तरह के धर्म को जान लेता है ।
२. स्वप्न दर्शन-जो उसको पहले उत्पन्न नहीं हुआ है यदि उत्पन्न हो जाय तो वह यथा-तथ्य स्वप्न को देखता है। देखकर समाधि प्राप्त करता है।
३. जाति-स्मरण-ज्ञान-( संज्ञीज्ञान ) संजीवाला 'अथवा जाति-स्मरण से उसका संशी ज्ञान पूर्व उत्पन्न नहीं हुआ है-यदि उत्पन्न हो जाय तो अपनी पुरानी जाति स्मरण करता हुआ समाधि प्राप्त करता है ।
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