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तथा भोत्रेन्द्रिय के राग का त्याग करना आदि पाँच भावनायें पाँचवें महाव्रत की कही है। उसका भाव अर्थ यह है
जो जीव जिस पदार्थ में आसक्त होता है उस जीव को उसका परिग्रह लगता है । इस कारण शब्दादिक से राग करने वाला जीव उस शब्दादिक का परिग्रह किया हुआ कहा जाता है। इस कारण परिग्रह विरति की विराधना हुई कही जाती है। अन्यथा शब्दादिक में राग न किया हो उस व्रत की आराधना हुई कही जाती हैं।
नोट-ये सर्व भावनायें वाचनांतर में आवश्यक सूत्र के अनुसार देखी जाती है अर्थात आवश्यक सूत्र में ये भावनायें वाचनांतर की तरह कही है । .५ कपरिषह-- उदिता परीसहा सिं पराइया ते य जिणवरिंदेहिं ।।
-आव निगा २५७/पूर्वार्ध टीका--उदिताः परीषहाः -शीतोष्णादयः एषां-भगवतां तीर्थकृतां, परते परीषहाः सर्वेऽपि जिनवरेन्द्र पराजिताः।
सर्व तीर्थंकरों ने शीतोष्णादि सब परीषह को पराजित किया। .६ स्वयंबुद्धः-- सम्वेऽपि सयंबुद्धा लोगंतियबोहिया य जीयंति ॥
-आव० निगा २३४ टीका--सर्व एव तीर्थकृतः स्वयंबुद्धा वर्तन्ते, तथापि लोकान्तिकदेवानामियं स्थितियंदुत स्वयंबुद्धानपि भगवतो बोधयन्ति, ततो जीतमिति-कल्प इति कृत्वा लोकान्तिकदेवैर्बोधिताः सन्तो निष्क्रामन्ति ।
__ सर्व तीर्थंकर स्वयंबुद्ध होते हैं तथापि लोकान्तिक देव स्वयं बुद्ध भगवान् को प्रतिबोधित करते हैं । यह जीत व्यवहार है । .७ उपधि तथा लिंग
सम्वेऽवि एगदूसेण निग्गया जिणवरा बउव्वीसं। न य नाम अन्नलिंगे न य गिहिलिंगे कुलिंगे वा॥
-आव० निगा २४६ टीका--'एगदूष्येण' एकेन वस्त्रेण निग्नता-अमिनिष्क्रांताः तद्यदि
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