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आरक्षण च दृष्टास्ते चौरभ्रान्त्या व जम्रिरे । जातावधिज्ञाना मृत्वा
सद्यो
महिमानं कृतं सुरैः ।
प्रेक्ष्य गोशालकस्तेषां तच्छिष्याणामुपेत्याऽख्यदुच्चैर्भर्त्सनपूर्व कम्
जंबूखंड उद्यान से विहार
कर तुंबाक ग्राम गोशालक तुंबाक
भगवान् महावीर साधनाकाल में जब पधारे । तब भगवान् ग्राम के बहार प्रतिमा में स्थित हो गये । ग्राम में गया । उस ग्राम में बहुश्रुत और अनेक शिष्यों के परिवार से पार्श्वनाथ के शिष्य वृद्ध नंदीषेणाचार्य का पदार्पण हुआ । गच्छ की सर्व चिन्ताओं से मुक्त होकर वे जिनकल्प के प्रतिकर्म को करते थे । गोशालक उनके पास आया तथा हास्य-विनोद कर वापस भगवान् के पास आया ।
.१० प्रगल्भा और विजय नाम शिष्या
दिवमुपासन् ॥ ५७९ ॥
महर्षि नंदीषेण रात्रि में उस ग्राम के किसी चौक में धर्मध्यान करने के लिए कार्यासर्ग धारण कर स्तंभ की तरह स्थिर रहे । चोकस करने के लिए निकले हुए आरक्षकों ने उन्हें चोर समझकर भ्रांति से मार डाला । अवधि ज्ञान प्राप्तकर वे देवलोक में उत्पन्न हुए । देवों ने उनका महोत्सव किया । गोशालक वहाँ आकर उनके शिष्यों का पूर्व की तरह तिरस्कार करने लगा ।
॥ ५८० ॥ त्रिशलका ० पर्व १० / सर्ग ३
कदर्थितः ||५८१||
(क) अथाऽगाविहरन् बीरः कूपिकां सन्निवेशनम् । तत्रारक्षैः सगोशालः स्पशभ्रान्त्या देवाय रूपवान् शान्तो युवारक्षेः निरागास्ताड्यमानोऽस्तीत्युल्लापापोऽभूज्जनेऽखिले ॥५८२ ॥
स्पशभूमात् ।
पार्श्व शिष्ये च प्रगल्भाविजये प्रोज्झितव्रते । निर्वाहाय परिवादत्वं प्रपन्ने तत्र तिष्ठतः || ५८३ ॥ वार्तामाकर्ण्य तां मा भूदुवीरोऽर्हन्निति
तत्रेयतुस्तथास्थं
ख
ते
स्वामिनं चचन्दाते
रे मूर्खा ! किं न जानीथ वीरं शीघ्र मुञ्चत चेज्ज्ञाता शक्रो पातयिष्यति वो मूर्ध्नि वज्र
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शंकया ।
भगवन्तमपश्यताम् || ५८४ || आरक्षांश्चेवमूचतुः । सिद्धार्थनन्दनम् ॥ ५८५ || व्यतिकरं हयमुम् । प्राणहरं तदा ॥ ५८६ ॥ - त्रिशलाका • पर्व १० / सर्ग ३
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