________________
( ६६ ) .२ धर्म-देशना
(क) भगवं च णं अद्धमागहीए भासाए धम्ममाइक्खइ । सावि य णं अद्धमागही भासा भासिजमाणी तेसिं सन्वेसिं आरियमणारियाणं दुप्पयबउप्पय-मिय-पसु - पक्खि - सिरीसिवाणं अप्पणो हिय - सिवसुहदाभासत्ताए परिणमइ ।
-सम० सम ३४
तीर्थकर अर्द्धमागधी भाषा में धर्म का आख्यान करते हैं। उनके द्वारा माण्यमान अर्द्धमागधी भाषा, आर्य, अनार्य, द्विपद, चतुष्पद, मृग, पशु-पक्षी तथा सरिसृप प्रभृति जीवों के लिए कल्याण और सुख के लिए उनकी अपनी-अपनी भाषाओं में परिणत हो जाती है।
(ख) समणे भगवं महावीरे कूणियस्स रण्णो भिंमसार पुत्तस्स xxx सारयनवत्थणियमहुरंगभीर-कोंचणिग्घोसदंदुभिस्सरे उरेवित्थडाए कठेवटियाए सिरे समाइण्णाए अगरणाए अमम्मणाए सुव्वत्तक्खरसणिवाईयाए पुणरत्ताए सव्वभासाणुगामणिए सरस्सईए जोयणणीहारिणासरेणं अद्धमागहाए भासाए भासति-अरिहा धम्म परिकहेति । तेर्सि सव्वेसिं आरियमणारियाणं अगिलाए धम्म-माइषखति । सावि य णं अद्धमागहा भासा तेसिं सम्वेसिं आरियमणारियाणं अप्पणो सभासाए परिणामेणं परिणमइ ।
ओव० सू० ७१ तब भगवान महावीर अनेकविध परिषद्-परिवृत्त ( श्रेणिक ) बिम्बिसार के पुत्र कूणिक (अजातशत्रु ) के समक्ष शरद् ऋतु के नव स्तनित-नूतन मेघ के गर्जन के समान मधुर तथा गंम्भीर, कौंच पक्षी के घोष के समान मुखर, दुन्दुभि की ध्वनि की तरह हृद्य वाणी से, जो हृदय में विस्तार पाती हुई, कण्ठ में वर्तुलित होती हुई तथा मस्तक में आकीर्ण होती हुई व्यक्त, पृथक्-पृथक् स्पष्ट अक्षरों में उच्चारित, मम्मणा-अव्यक्त वचनता रहित, साक्षर समन्वय युक्त, पुण्यानुरक्त, सर्वभाषानुगामिनी, योजन पर्यन्त श्रूयमाण अर्द्धमागधी भाषा में बोलते हैं, धर्मका परिकथन करते है।
भगवान वहाँ उपस्थित सभी आर्यों, अनार्यों को अग्लान रूप में धर्म का उपदेश करते है। वह अर्द्धमागधी भाषा उन सभी आर्यों, अनार्यों की अपनी-अपनी भाषाओं में परिणत हो जाती है।
(ग) सर्वार्धमागधी सर्व-भाषाषु परिणामिनीम् । सार्षीयां सर्वतोवाचं सार्वज्ञी प्रणिंदध्महे ।।
–अलंकार तिलक, १.१
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org