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( १० ) संसारभवकडिल्ले, संजोगविओगसोगतरुगहणे ।
कुपहपणट्ठाण तुमं, सत्थाहो नाह! उप्पन्नो ॥४५॥ हे नाथ ! संयोग, वियोग एवं शोकरूपी तरुओं से व्याप्त जन्ममरणरूपी संसार के गहनवन के कुमार्ग में नष्ट होने वाले जंतुओं के लिए आप ही सार्थवाह तुल्य उत्पन्न हुए हैं ।
तुह नाह ! को समत्थो, सब्भूयगुणाण कुणइ परिसंखा ।
सुइरम्मि भण्णभाणो, अवि वाससहस्सकोडीहि ॥४६॥ ___ बहुत देर तक-सहस्त्रको टि वर्षों तक भी आपके वास्तविक गुणों को यदि कोई संकीर्तन करे तो भी उनकी गिनती करने में, हे नाथ ! कौन समर्थ हो सकता है।
-पउच० अधि२ भगवान महावीर के समकालीन राजाविपुलाचल पर्वत पर राजा श्रेणिकका भगवान के दर्शनार्थ-आवागमन ।
मगहाहिवो वि राया, दहण सुरागमं जिणसगासे । भडचडयरेण महया, तो रायपुराओ नीहरिओ ॥ पत्तो य तमुद्देसं मत्तमहागयवराओ उत्तिण्णो । थोऊण जिणवरिन्दं उवविट्ठो मगहसामंतो॥
-पउच० अधि २/ श्लो ४८, ४६ मगधाधिप राजा श्रेणिकभी जिनेश्वर भगवान् के पास देवताओं का आगमन देखकर बड़े भारी सुभटसमूह के साथ राजपुर से निकला। जिस स्थान पर भगवान् ठहरे हुए थे उस स्थान पर आकर वह मगध नरेश मदोन्मत्त गजराज पर से नीचे उतरा और जिनवर की स्तुति करके नीचे बैठा । (ब) वर्धमान-एक विवेचन
टीका-भगवान् त्रिकचतुष्कचत्वरचतुर्मुखमहापथादिषु पटुपटहप्रतिरवोद्घोषणापूर्वं यथाकाममुपहतसकलजनदारिद्र यमनवच्छिन्नमब्दं यावन्महादानं दत्त्वा सदेवमनुजासुरपरिषदा परिवृतः कुण्डपुरान्निर्गत्य क्षातखंडवने मार्गशीर्षकृष्णदशम्यामेककः प्रव्रज्य मनःपर्यायज्ञानमुत्पाद्याष्टौ मासान् विहृत्य मयूरकाभिधानसन्निवेशबहिःस्थानां दूयमानाभिधानानां पाखण्डिकानां सम्बधिन्येकस्मिन्नुटजे तदनुज्ञाया वर्षावासमारभ्य अविधीयमानरक्षतया पशुभिरुपद्र यमाणे उटजेऽप्रीतिकं कुर्वाणमाकलय्य कुटीरकनायकमुनिकुमारकं ततो वर्षाणाम मासे गतेऽकाल एक निर्गत्यास्थिकग्रामामिधानसन्निदेशाद् बहिः शूलपा
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