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( २५ ) संसार सागर अपार महेच्छा से मलिन बनी हुई मति रूप वायु के वेग से ऊपर उठते हुए जल कण्टों के समूह के वेग (-रय = आवेश) से अंधकार युक्त और (वायु-वेग से उत्पन्न होते हुए ) सुन्दर (अवमाननादि रूप) फेन छाई हुई ( या फेन के सदृश्य ) आशा (= अप्राप्त पदार्थों के प्राप्ति की संभावना ) और पिपासा = ( अप्राप्त पदार्थों के प्राप्ति की आकांक्षा) से धवल है। इसलिए
(संसार-सागर ) में मोहरूप बड़े-बड़े आवर्त हैं। आवर्त में भोग रूप भँवर (=पानी के गोल-घुमाव ) उठते हैं। अतः दुःखरूप पानी चक्कर लेता हुआ, व्याकूत होता हुआ, ऊपर उछलता हुआ और नीचे गिरता हुआ दिखाई देता है। वहाँ प्रमाद रूप भयंकर एवं अति दुष्ट जलजन्तु हैं। जल के उठाव, गिराव और जल-जन्तुओं से घायल होकर, इधरउधर उछलते हुए (क्षुद्र जीवों के ) समूह हैं, जो क्रन्दन करते रहते हैं। इस प्रकार संसारसागर गिरते हुए दुःख रूप जल, प्रमाद रूप जलजंतु और आहत संसारी जीवों के प्रतिध्वनि सहित होते हुए महान कोलाहल रूप भयानक घोष से युक्त हैं।
संसार-सागर में भमते हुए अज्ञान रूपी चतुर मत्स्य है और अनुपशान्त इन्द्रियां रूप महामगर है। ये ( मत्स्य-मगर ) जल्दी-जल्दी हलन-चलन करते हैं । जिससे (दुःखरूप) जल समूह क्षुभित होता है-नृत्य सा करता हुआ चपल है ---एक स्थान से दूसरे स्थान पर चलता हुआ एवं घूमता हुआ चञ्चल है ।
__ अरति (== अरुचि-संयम स्थानों में निरानन्द का भाव), भय-विषाद-शोक और मिथ्यात्व (= मिथ्याभाव = कुश्रद्धा ) रूप पर्वतों से भवसागर व्याप्त हैं।
वह भवसागर अनादिकालीन प्रवाह वाले कर्म-बंधन और क्लेश रूप कीचड़ से अति ही दुस्तर बना हुआ है।
वह देव, मनुष्य, तियंच और नरकगति में गमन रूप कुटिल परिवर्तन (भँवर ) युक्त विपुल ज्वारवाला है।
संसार-सागर से तैरना---
(8) पसस्थझाण - तववाय - पणोल्लिय-पहाविएणं उजम-ववसाय-गहियणिजरण जयण उवओग णाणदसणविसुद्धवयभंड भरियसारा।।
-ओव० सू०४६
वह संयमपोत प्रशस्त ध्यान और तपरूप वायु की प्रेरणा से शीघ्रगति से चलता था।
उसमें उद्यम ( अनालस्य ) और व्यवसाय ( वस्तु निर्णय या सद्व्यापार ) से गृहीत ( - क्रीत-खरीदे हुए) निर्जरा, यतना, उपयोग, शान, दर्शन और विशुद्ध व्रत रूप सार पदार्थ भाण्ड (कयाणक ), अनगारों द्वारा भरे गये थे।
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