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००/४ वर्धमान ( महावीर ) के चतुर्विध संघ का निरूपण ०० भगवान के चतुर्विध संघ के प्रमाण का निरूपण (क) तित्थंभंते ! तित्थं १ तित्थगरे तित्थं ?
गोयमा ! अरहा ताव नियमं तित्थकरे, तित्थं पुण चाउवण्णे समणसंधे, तंजहा-समणा, समणीओ, सावया, सावियाओ।
-भग० श २०/उ ८/सू ७४ अरिहंत नियमसे तीर्थकर होते हैं परन्तु तीर्थ चार प्रकार का कहा है१-श्रमण, २-श्रमणी, ३-भावक और ४-श्राविका ।। (ख) तित्थं चाउव्वण्णो, संघो सो पढमए समोसरणे। उप्पण्णी उ जिणाणं, वीरजिणिदस्स बीयंमि॥
-आव० निगा ५८७ श्री वीरभगवान के दूसरे समवसरण में तीर्थ और संघ की स्थापना हुई। परन्तु ऋषभदेव आदि तेइस तीर्थंकरों के समय प्रथम समवसरण से ही तीर्थ (प्रवचन ) एवं चतुर्विध संघ उत्पन्न हुए ।
(ग) भगवान् महावीर को अरिहंत पद में ग्रहण
तित्थं भंते ! तित्थं, तित्थगरे तित्थं ? गोयमा ! अरहा ताव नियमं तित्थगरे, तित्थं पुण चाउवण्णे समणसंघे, तंजहा-समणा, समणीओ, साविया, सावियाओ।
-भग० श २०/3/८ सू ७४ अरिहंत तो अवश्य तीर्थंकर हैं ( तीर्थ नहीं ) परन्तु ज्ञानादि गुणों से युक्त चार प्रकार का श्रमण संघ तीर्थ कहलाता है--यथा-साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका
पवयणं भंते ! पवयणं, पावयणी, पवयणं? गोयमा ! अरहा ताव णियमं पावयणी, पवयणं पुणदुवालसंगे गणिपिडगे, तंजहा-आयारो जाव दिहिवाओ ।
- भग० श २०/उ ८ सू ७५ अरिहंत अवश्य प्रवचनी है ( प्रवचन नहीं) और द्वादशांग गणिपिटक प्रवचन हैयथा-आचारांग यावत् दृष्टिवाद ।
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