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उपोसित थे। उस देशना में ५५ अध्ययन पुण्यफल विपाक के और ५५ अध्यअन पाप फल विपाक के कहे । प्रधान नामक मरुदेवी माता का अध्ययन कहते-कहते भगवाद् पर्य'कासन में स्थिर हुए। तब भगवान ने क्रमशः बादर काय योग में स्थित रह, बादर मनोयोग और वचन योग को रोका । इसके बाद सम्पूर्ण योग का निरोध किया।
__ भगवान् के परिनिर्वाण के समय अर्यनामकाल व, मुहूर्त नाम का प्राण, सिद्ध नाम का स्तोक था। नाग नाम का करण था। सर्वार्थ सिद्धि नामक उनतीसवाँ मुहूर्त था । स्वाति नक्षत्र के साथ चंद्र का योग था ।
गौतम बुद्ध से भगवान महावीर ज्येष्ठ थे। ऐतिहासिक घटना के अनुसार यह पता चलता है कि गौतम बुद्ध पार्श्वनाथ-परंपरा के किसी श्रमण रूप में दीक्षित हुए और वहाँ से उन्होंने बहुत कुछ सद्ज्ञान प्राप्त किया । दिगम्बर परम्परा के देवसेनाचार्य (८वीं शती) कृत दर्शन सार में गौतम बुद्ध द्वारा प्रारम्भ में जैन दीक्षा ग्रहण करने का आशय मिलता है। उसमें बताया गया है-"जैन भमण पिहिताश्रव ने सरयू नदी के तट पर पलाश नामक ग्राम में श्री पार्श्वनाथ के संघ में उन्हें दीक्षा दी और उनका नाम मुनि बुद्ध कीर्ति रखा । कुछ समय पश्चात वे मत्स्य-मांस खाने लगे और रक्त वस्त्र पहनकर अपने नवीन धर्म का उपदेश देने लगे।
जैन आगम भगवती सूत्र में पूरण तापस का विस्तृत वर्णन मिलता है। वह भी भगवान महाबीर का समसामयिक था।
पाक्षिक तप करते हुए भगवान महावीर ने अपना प्रथम चतुर्मास अस्थि ग्राम में किया। दूसरे वर्ष मासिक तप करते हुए राजगृह के बाहर नालंदा की तंतुवायशाला के एक भाग में यथायोग्य अवग्रह ग्रहण कर उन्होंने चतुर्मास किया ।
जब गौशालक अपनी तेजो लेश्या से प्रतिहत हुआ तब निर्ग्रन्थों ने उसको विविध प्रकार के प्रश्नोंत्तरों द्वारा निरूत्तर कर दिया। गौशालक अत्यन्त क्रोधित हुआ, परन्तु वह निग्रंथों को तनिक भी कष्ट न पहुँचा सका । अनेक स्थविर असंतुष्ट होकर उसके संघ से पृथक् होकर भगवान महावीर के संघ में आये और वहीं साधना निरत हो गये । श्रावस्ती में अयंपूल नामक एक आजीविकोपासक रहता था।
भगवान महावीर ने अपने अंगुठे से क्रीड़ा मात्र में मेरु पर्वत को हिला दिया था। इसलिए सुरेन्द्रोंने उनका नाम महावीर रखा । इन्द्र के द्वारा दिये गये आहारसे तथा अंगूठे पर किये गये अमृत के लेप के चूसने से धीरे-धीरे बालभाव को त्याग करके भगवान् तीस वर्ष के हुए । उनका रुधिर दूध के समान सफेद था। उनकी देह मैल और पसीने से रहित थी। उनकी आँखें स्पन्दन से रहित थों। अर्धमागधी वाणी उनके मुख से निकलती थी। शिष्य समुदाय, गणघर और सकल संघ के साथ विहार करते हुए भगवाम एक बार विपुलाचल पर्वत पर पधारे।
___ असग ने भगवान महावीर के पाँचों कल्याणकों का वर्णन बहुत ही संक्षेप में दिगम्बर परंपरा के अनुसार ही किया है, तथापि दो एक घटनाओं के वर्णन पर श्वेताम्बर परम्परा
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