Book Title: Tiloy Pannati Part 2
Author(s): Vrushabhacharya, A N Upadhye, Hiralal Jain
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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ग्रंयका विषयपरिचयः ( दुःषम-सुषम ) कालमें क्रमशः आदिसे अन्त तक हानि व वृद्धि होती रहती है, अन्य कालोंकी प्रवृत्ति वहां नहीं है ।
' असंख्यात अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी कालोंके बीतनेपर एक हुण्डावसर्पिणी काल आता है जिसमें कुछ अनहोनी घटनायें घटित होती हैं। जैसे- सुषम-दुःषम कालकी स्थितिके कुछ शेष रहनेपर भी वर्षाका होने लगना, विकलेन्द्रिय जीवोंकी उत्पत्ति प्रारम्भ हो जाना, कल्पवृक्षोंका नष्ट होना, कर्मभूमिका व्यापार प्रारम्भ हो जाना, प्रथम तीर्थकर और प्रथम चक्रवर्तीका जन्म लेना, चक्रवर्तीका विजयभंग, इसी कालमें कुछ थोड़े जीवोंका मुक्ति प्राप्त करना, चक्रवर्ती द्वारा ब्राह्मण वर्णकी उत्पत्ति, दुःषम-सुषम कालमें - ६३ के स्थानपर ५८ ही शलाकापुरुषों का होना, नौवेंसे सोलहवें तीर्थंकर तक सात तीयोंमें धर्मका ज्युच्छेद होना, कलहप्रिय ११ रुद्र और ९ नारदों का जन्म लेना, सातवें, तेईसवें और चौबीसवें तीर्थकरोंके उपसर्गका होना, तथा कल्की-उपकल्कीका जन्म लेना, इत्यादि । - गा. १६२४-१७७३ में हिमवान्, महाहिमवान्, हरिवर्ष और निषध, इनकी प्ररूपणा की है (देखिये यंत्र नं. ५-६)।
आगे गा. १७७४-२३२६ में विदेह क्षेत्रका वर्णन करते हुए उसका विस्तारादि, मंदर शैल ( सुमेरु ), तदपरिस्थ पाण्डकादिक वन, जिनभवनरचनाका प्रकार, वक्षार पर्वत, गजदन्त, जम्बू व शाल्मली वृक्ष, मन्दर पर्वत के पूर्वापर मागेॉमें स्थित १६-१६ क्षेत्र, कच्छा विजय व क्षेमा नगरी आदिका विस्तारसे कथन किया गया है।
गा. २३२७-२३७३ में नीलगिरि, रम्यक विजय, रुक्मि पर्वत, हैरण्यवत क्षेत्र, शिखरी पर्वत और ऐरावत क्षेत्रका वर्णन किया है ( देखिये यंत्र नं. ५-६.)। गा. २३७१-२३७२ में भरतादिकोंका क्षेत्रफल बतलाया गया है। आगे गा. २३९० तक नदी आदिकोंकी समस्त संख्या निर्दिष्ट की है। .
- गा. २३९८-२५२६ में लवण समुद्रकी प्ररूपणा की गई है। इस प्रकरणमें २४१५ से २१२५ तक १० गाथायें प्रतियोंमें नष्ट बतलायी गई हैं। उनका छूटना प्रकरणके अधूरेपनसे भी सिद्ध होता है । यहां लवणसमुद्रका विस्तारादि बतलानेके पश्चात् उसके मध्यमें चारों दिशाओंमें : उत्कृष्ट पाताल, विदिशाओंमें ४ मध्यम पाताल और उन दोनोंके बीच बीचमें १००० ज य पाताल बतलाये गये हैं। ये पाताल रांजन ( एक प्रकारका घड़ा) के आकार हैं। मुख्य पातालोका विस्तार मूल व मुखमें दस हजार योजन तथा मध्यमें एक लाख योजन प्रमाण है । उंचाई भी इनकी एक लाख योजन ही है। मध्यम पाताका बिस्तारादि उत्कृष्ट पातालोंके दसवें भागः और वही जघन्य पातालोंका मध्यमों के दसवें
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