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स्वतंत्रता संग्राम में जैन
Xxxi अधिकांश जेलयात्री हैं। मध्य प्रदेश सरकार ने भूमिगत रहने वालों को भी स्वतंत्रता सेनानी का दर्जा दिया है, अत: उनका परिचय भी इसी अध्याय में समाविष्ट है।
परिशिष्टों में कुछ लेख हमने यथावत् दिये हैं। स्याद्वाद महाविद्यालय, वाराणसी एक ऐसा महाविद्यालय है, जहाँ के लगभग सभी छात्र 1942 के आन्दोलन में क्रान्तिकारी हो गये थे। इन छात्रों का लेखा-जोखा वहीं के छात्र रहे श्री देवेन्द्र जैन ने 'जैन सन्देश', राष्ट्रीय अंक (जनवरी, 1947) में प्रस्तुत किया था, जिसे हमने यथावत् दिया है। 'राष्ट्रीयता क्या है?' शीर्षक लेख पं0 चैनसुखदास न्यायतीर्थ ने लिखा था जो 'जैन सन्देश' के उक्त अंक में छपा था, उसे भी यथावत् दे दिया गया है। एक जब्तशुदा लेख के अन्तर्गत देवबन्द के बाबू ज्योति प्रसाद जैन का 'भगवान् महावीर और महात्मा गांधी' लेख दिया गया है जो देवबन्द से प्रकाशित 'जैन प्रदीप' (उर्दू) में अप्रैल एवं मई-जून 1930 के अंकों में छपा था। इस लेख के कारण पत्र की जमानत जब्त हो गई थी और पत्र भी बन्द हो गया था। 'स्त्रियां राजनैतिक क्रान्ति में भाग लें या नहीं?' शीर्षक लेख 'जैन महिलादर्श' के अगस्त 1946 के अंक में छपा था, जिसे भी यथावत् दिया जा रहा है।
भारत के संविधान निर्माण में जैनों ने भी महत्त्वपूर्ण योगदान दिया था। संविधान सभा के पाँच जैन सदस्यों की प्रामाणिक जानकारी हमें मिली है जिनमें श्री कुसुमकान्त जैन सभा के सम्भवतः सबसे कम उम्र के सदस्य थे। श्री कुसुमकान्त जैन और श्री बलवन्त सिंह मेहता अभी हमारे बीच हैं, यह जैन समाज के लिए परम सौभाग्य की बात है। श्री मेहता 8 फरवरी 2000 को शतायु होकर एक सौ एक वें वर्ष में प्रवेश कर चुके हैं। राजस्थान के डॉ0 राजमल कासलीवाल, नेताजी सुभाषचन्द्र बोस के निजी चिकित्सक रहे थे। श्रीमती रमाबेन आदि महिलायें आजाद हिन्द फौज की सदस्यायें रही थीं। 'आजाद हिन्द फौज में जैन' शीर्षक लेख में हमने उनके इसी अवदान को रेखांकित करने का प्रयास किया है। 'राष्ट्रीय आन्दोलन में जैन पत्र-पत्रिकाओं का योगदान' लेख में जैन पत्र-पत्रिकाओं के अवदान को रेखांकित किया गया है, कि किस प्रकार जैन पत्रकार बिना किसी भय के आन्दोलन के सन्दर्भ में समाचार/लेख आदि देते रहे। इस विषय में अन्य भी बहुत सामग्री हमारे पास उपलब्ध है, जिसे विस्तार भय से नहीं दिया गया है।
अन्त में आधारभूत ग्रन्थों की सूची दी गई है। इसमें अधिकांशतः वे ही ग्रन्थ उल्लिखित हैं जिनका उपयोग हुआ है। ऐसे अनेक ग्रन्थ हैं जिनका अध्ययन तो किया गया पर जिनमें कोई सामग्री नहीं मिली। सामान्यतः ऐसे ग्रन्थों का उल्लेख नहीं किया गया है। अनेक ग्रन्थ कई दशकों पूर्व प्रकाशित हुए थे जिनकी प्रतियां नहीं मिल सकी, ऐसी दशा में पूरे के पूरे ग्रन्थ की फोटोस्टेट करानी पड़ी, जो हमारे पास सुरक्षित हैं। जिन ग्रन्थों का अनेक बार उल्लेख किया गया है उनके लिए कुछ संक्षिप्त संकेत बनाये हैं, जिन्हें ग्रन्थारम्भ में दे दिया गया है।
सामग्री का लेखन करते समय इस बात का विशेष ध्यान रखा गया है कि जो कुछ संकलित हुआ है उसे यथासम्भव सुरक्षित रखा जाये और उतनी ही काट-छांट की जाये जो स्पष्टता और सुबोधता के लिए
आवश्यक हो। अपनी तरफ से कुछ भी नया हमने नहीं जोड़ा है क्योंकि यह हमारे कार्यक्षेत्र से बाहर है। किसी इतिहास लेखक को यह करना भी नहीं चाहिए। हम उन घटनाओं के प्रत्यक्षदर्शी नहीं हैं। हमें तो जो लिखित और व्यक्तियों के श्रीमुख से मिला उसे ही प्रस्तुत किया है।
यह समस्या थी कि किसकी स्मृतियों को छोड़ा जाये, किसके अनुभवों को न लिखें। एक-एक परिचय को अन्तिम रूप देते समय घंटों का समय इसी बहस में निकला है। सामग्री बढ़ने की चिन्ता थी पर
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