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विवेचन को आद्यन्त देखकर परिमार्जित किया है, उनका भी मैं अत्यन्त आभारी हूँ ।
विद्वद्वर्यं आत्मीय मुनि श्री महाबोधि विजयजी ने भी सुन्दर प्रस्तावना लिखकर इस विवेचन की शोभा बढ़ाई है ।
अन्त में मतिमन्दतादि दोषों के कारण यदि कहीं जिनाज्ञा विरुद्ध आलेखन हुआ हो तो उसके लिए त्रिविधमिच्छामिदुक्कडम् ।
जैन उपाश्रय, गुजराती कटला पाली (राज.)
अ. सु. १४, २०४५ चातुर्मास प्रारम्भ दिन दिनांक १८-७-८
अध्यात्मयोगी पूज्य पंन्यासप्रवर श्री भद्रंकर विजयजी गरिणवयं श्री
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का चरम शिष्याणु मुनि रत्नसेन विजय