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वचन - साहित्य - परिचय
समाजमें अंधश्रद्धाके स्थान पर दक्षतापूर्ण विवेक शक्तिका विकास हुआ । वचनकारोंने भी इसका अनुकरण किया। इससे कर्नाटक में भी बड़ी उथल-पुथल मची । आगे चलकर महाराष्ट्र के संतोंने और भारतके अन्य प्रदेशोंके संतोंने भी यही किया । इतना ही नहीं, १६वीं शताब्दी में यूरोप में भी मार्टिन लूथरने इसी - का अनुकरण किया । वचनकारोंने केवल धर्म तत्वोंका निरूपण ही नहीं किया, उसका आचरण करके भी दिखाया और सर्वसुलभ सगुण भक्तिको अपने संप्रदाय का साधन बना कर वार्मिक क्षेत्रमें जनतंत्र की स्थापना की ।
वचनकारों के जीवनका उद्देश्य सत्यका साक्षात्कार रहा है । वचन साहित्यका मूल्यांकन करते समय, उनके सामूहिक व्यक्तित्व तथा व्यक्तिगत जीवनका विचार करते समय क्षण भर भी आलोचक यह भूल नहीं सकता कि 'वेन साहित्यिक ये न कलाकार ।' वे तो साक्षात्कारके नायक थे । उन सबका ध्येय एक था । किंतु साधना पद्धति एक नहीं थी । उनके सावना मार्ग भिन्न-भिन्न ये | यह सावना- भिन्नता उनके आपसी सहयोग और संगठनमें बाधक नहीं हुई। क्योंकि उनमें जो व्येयात्मक एकता थी वह अत्यंत प्रबल थी । जैसे एक . वागा भिन्न-भिन्न रंग-रूप अथवा ग्राकार-प्रकारके फूलोंको गूंथकर मालाका आकार देता है, वैसे ही उनके साध्यकी एकता साधना - भिन्नताको एकता के सूत्र - में पिरोये रखने में समर्थ हुई। वह साव्यकी ही प्रधान मानते थे, और सावनाको गौण | वचनकारोंकी दृष्टिसे सत्यका साक्षात्कार ही जीवनका एकमात्र उद्देश्य है । वही स्थिर लक्ष्य है | वही सच्चा प्राप्तव्य है । उनकी दृष्टिसे साक्षात्कारको ही जीवनका एकमात्र प्राप्तव्य न मानते हुए की जानेवाली सावना वैसी ही व्यर्थ है जैसे बिना सरका बड़, विना शौर्यका सैनिक, और बिना जलका सरोवर होता है । उनका लक्ष्य अच्छे धनुर्धारीके लक्ष्यकी तरह स्पष्ट था । उनकी व्येय-मूर्ति सदा-सर्वदा उनकी दृष्टिके सामने रहती थी । उस लभ्यको पानेके लिए वे उतावले थे । उसकी प्राप्ति में होनेवाला विलंब उनको विह्वल बना देता । इसलिए उनकी साधना-भिन्नता उनके सहयोग और संघटन पर कोई प्रभाव नहीं डाल सकी। उनका संघटन स्थिर और शक्तिशाली रहा । एक ही एक स्पष्ट व्येयसे प्रेरित अथवा एक ही मंत्रते अभिमंत्रित इन साधकोंने अपनी-अपनी योग्यतानुसार अलग-अलग प्रकारके साधनामार्ग अपनाये। उन्होंने अपने स्वभाव-धर्म के अनुसार, भक्ति, ज्ञान, व्यान, कर्म श्रादिका आसरा लिया। किंतु सर्व समर्पणको वैसे ही अपनी साधनाकी नींव मान लिया जैसे साक्षात्कारको अपनी साधनाका साध्य । उन साधकों में कोई भक्त था, कोई ज्ञानी था, कोई योगी था । स्वयं श्री बसवेश्वर भक्त थे । चन्न बसव ज्ञानी कहलाते थे, और 'अखंडेश्वर' नामकी मुद्रिका मे वचन कहलाने