________________
.. मुक्ताय
२६६. (५५३) चंद्रमाकी भांति कलाएं प्राप्त हुईं मुझे। संसार रूपी राहु सर्वग्रासी हुआ था। मेरे जीवन में ग्रहण लगा था। आज उस ग्रहणका मोक्ष हुना' कूडलसंगमदेवा।
(५५४) मुझे जहां तहां न भटक सकनेसा लंगड़ा बना रख मेरे पिता चारों ओर न झांक सकने जैसा अंधा बना रख मेरे पिता । अन्य विषय न सुन सकने जैसा वहरा बना रख । तुम्हारे शरणोंके चरणके अतिरिक्त अन्य विषयों-. की ओर न खिच सकने जैसे रख मेरे कूडलसंगमदेवा ।
(५५५) हे भ्रमर समूह ! हे आम्रवन ! अरी चांदनी ! कोयल ! तुम सबसे एक ही मांग करती हूं मेरे स्वामी चन्नमल्लिकार्जुनको देखा हो तो मुझे वहां पहुंचा दो री!
टिप्पणी:- मोक्षार्थीके लिए संसार सुखकी ओर मनको जाने देना अथवा विषय सुखमें मग्न रहना घातक है; जब इसका अनुभव होने लगता है तब इसमेंसे मुक्त होना चाहिए ऐसा भाव स्थिर होता जाता है । यही मुक्ति की इच्छा है । जैसे-जैसे मुक्तिकी इच्छा तीन्न होती जाती है मुक्तिका द्वार मुक्तद्वार होता । है । इसके साधनरूप वचनकारोंने सर्पिण का महत्त्व गाया है।
(५५६ ) मेरी मायाका मन तोड़ दो बाबा ! मेरे शरीरकी छटपटाहट नष्ट करो। मेरे जीवकी उलझन सुलझायो। मेरे स्वामी चन्नमल्लिकार्जुना मुझे लपेटे हुए इस माया प्रपंचसे छुड़ाओ। यही तेरा धर्म है।
(५५७) चलनेके पैर, उठानेके हाथ, मांगनेवाला मुंह, सबसे मिलनेवाला मन क्षीण होकर धनलिंगीमें विलीनहोने वालेका शरीर मानो पागलका देखा स्वप्न है, गूंगेका सुना काव्य है, पानीसे लिखी लिपी है, पानीसे उठा हुआ धुंबा है, यह किसीको असाध्य है आतुरवैरि मारेश्वरा।
(५५८) अरे तेरे अनुभावसे मेरा तन नष्ट हुअा रे ! तेरे अनुभावसे मेरा मन नष्ट हुअा, तेरे अनुभावसे मेरा कर्म नष्ट हुआ, तेरे लोगोंके द्वारा क्षण-क्षण, कदम-कदम पर, कह-कहकर, भक्ति रूपी वस्तुको सच करके बनाए जानेसे वहां करने व सब करानेवाला तू ही कूडलसंगमदेवा।
टिप्पणी-तन, मन, प्राण, भाव , आदि परमात्मामें अर्पण करके उनकी अनन्य शरण जाकर, वह जैसे रखता है वैसे रहते हुए साधक अपनी साधनाका प्रारंभ करता है । तब उसकी सभी शक्तियां परमात्मा-प्राप्तिमें ही लगती हैं। इसके अतिरिक्त भी साधनाके लिए चित्तशुद्धि आदिकी श्रावश्यकता है।
(५५६) जो जन . सम्मत शुद्ध हैं मन सम्मत शुद्ध नहीं, कथनीमें पंडित हैं, . करनीमें पंडित नहीं, जो वेशभूषामें श्रेष्ठ हैं, भाव-भाषामें श्रेष्ठ नहीं, जो धनके