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- वचन-साहित्य-परिचय समरस बनकर वह चित् चिद्धनके विलीनीकरणमें ऐक्य हो जाता है। अखंडेश्वरा।
(५४८) अजी ! अपने आपको जान लिया कि आप स्वयं पर-ब्रह्म है, अपना आप चिन्मय चिबिंदु चित्कलामूर्ति हैं, अपने आप सकल चैतन्य सूत्रधारी हैं, अपनेसे बड़ा दूसरा दैवत ही नहीं; अपने आप स्वयं सच्चिदानन्द स्वरूप चिधना लिंग है अप्रमाण कूडलसंगमदेवा ।
टिप्पणी:-जीव अपना प्रोपाधिक संकुचित भावका अतिक्रमण कर गया.. कि मैं देह हूं, मन हूं, यह भूलकर "मैं आत्मस्वरूप” हूं ऐसा अनुभव करने लगता है। यही साक्षात्कार है। इसीसे मुक्ति है। फिर भी भला सब मुक्त क्यों नहीं होते ? क्योंकि जीव अज्ञानसे बद्ध है । तब वह अज्ञान क्या है ?
(५४६) माके गर्भ में रहते हुए बालक मांको नहीं पहचानता। वह मां भी बच्चेको नहीं पहचानती। उसके रूपको नहीं जानती, माया मोहके प्रावरणमें स्थित भक्त भगवानका रूप नहीं जानता। भगवान भी उन भक्तोंको नहीं जानता रामनाथा। - (५५०) दुनियाके सब घरोंको मेरा घर कहनेवाले चूहेकी भांति जीवा धन, धरा और दारा आदि सब कुछ मेरा कहता हम उन 'सवका बोझ ढोता फिरता है, सबका कर्ता धर्ता भर्ता कूडलसंगमदेव है यह न जानते हुए।
(५५१) जब दर्पण पर धूल पड़ी होती है तव दर्पण नहीं देखना चाहिए, अपनी भाव शुद्धिके लिए दर्पणकी शुद्धता और चमक आवश्यक है। मेरेमनको कपटको तुम्हारी चित्त-शुद्धिकी खोज करनी चाहिए। तुम्हारी निर्मलताको मेरा मन शरीर आदि धोना चाहिए। ज्ञानके शरणकी, विनय सदशिव मूर्ति लिंगके. समरस भाव।
(५५२) मोह, मद, राग, विषाद, ताप, शोक, वैचित्र्य रूपी सप्त मलके आवरणमें लीन होकर अपने आपको न जानते हुए, आंखोंमें छाए अज्ञानांधकारसे आगे क्या है यह न देखनेसे भला शिवको कैसे जानेंगे ? गृह, क्षेत्र, सति सुतादि बंधनोंमें बद्ध पशु भला शिवको कैसे जानेगा ? निजंगुर स्वतंत्र सिद्धलिंगेश्वर स्वयं उन्हें उठाना भी नहीं जानता। .............. "
टिप्पणीः--दर्पण पर पड़ी धूलकी भांति अज्ञान मनुष्यके मनको ग्रसता है। बुद्धिपर छा जानेसे मनुष्य दुःखमें छटपटाता है। काम क्रोधादि षड्वैरि, विषय सुख लालसा, अहंकार, ममत्व, राग द्वेषादि द्वंद्व, अज्ञानके विविध रूप हैं। वह मनुष्यको मोक्षकी ओर नहीं जाने देते। जब ज्ञान हुआ कि मनमें उन सबकी
ओरसे उदासीनता 'आ जाती है। वैराग्य उत्पन्न होता है। मोक्षका संकल्प महुलाता है । वही मुमुक्षु स्थिति है । मोक्षका संकल्प भला कैसा होता है ?