Book Title: Santoka Vachnamrut
Author(s): Rangnath Ramchandra Diwakar
Publisher: Sasta Sahitya Mandal

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Page 310
________________ मुक्ताय .. २६७ (५४१) विश्व भरमें तू ही तू है प्रभो, विश्वभरित भी तू ही है, विश्वपति भी तू ही है स्वामी और विश्वातीत भी तू ही है अखंडेश्वरा। (५४२) गिरिगुहाके खंडहरोंमें, भूमि खेत खलिहानोंमें, जहां देखा तू ही है 'प्रभो ! वाङ्मनको अगम्य, अगोचर होकर जहां-तहां तू ही तू रहता है गुहेश्वरा, तुमसे अलग होने के लिए मैंने चारों ओर भटककर देखा। (५४३) वृक्षमें तुमने मंद-मंद अग्निकी ज्वालाको रखा है वृक्ष न जलने देते हुए । दूधमें तुमने घी को रखा विना सुगंधके । शरीरमें प्रात्माको रखा है अदृश्य • बनाकर तुम्हारे इस रहस्यको देखकर चकित हुया मैं रामनाथा । . (५४४) मृत्युरहित, रूपरहित विकृति रहित सौंदर्य है मां उसका । स्थानरहित, चिन्ह रहित सर्वाग सुंदरको मैंने वरण किया मेरी मां ! कुल शील रहित .. 'निःसीम सुंदर पर मैं रीझ गयी । इसलिए चन्नमल्लिकार्जुन ही मेरा पति है । इन मरनेवाले सड़नेवाले पतिको भाड़में झोंक दो। टिप्पणी:-परमात्मा अनादि, अनंत, त्रिगुणातीत, कलारहित, वाङ्मनको अगोचर, विश्वव्यापी, विश्वपति और तेजोरूप है। वह सर्वव्यापी है जैसे देहमें वसी यात्मा, दूधमें स्थित घी। इन उपरोक्त गुणोंको अपने पतिमें आरोपित करनेवाली सतीकी भांति अक्कमहादेवीने भगवानका वर्णन किया है । अव • सृष्टिके विषयमें (५४५) अपनी लीला विनोदके लिए इस सष्टिका सृजन किया उसने । अपने विनोदके लिए विश्वको अनंत दुःखमें भरमाया उसने । मेरे चन्नमल्लिकार्जुन नामके पर शिवने जगद्विलास पर्याप्त होनेसे पुनः उस माया पाशको तोड़ दिया। (५४६) अाकाश गर्जनसे वर्षा होनेपर उसी वर्षा जलके आकाशसे मिल करके जमकर प्रोले बन जानेकी भांति तुम्हारा स्मरण ही शक्ति बना महालिंग फाल्लेश्वरा तुम्हारा पादिका यही प्रारंभ हुआ न ? टिप्पणी:-चिद्रूप अनादि अनंत परमात्मामें संकल्प मूलक शक्तिका निर्माण होकर सृष्टिका प्रारंभ हुया । जीवात्मा इस सृष्टिका एक भाग है। किंतु वह "मैं" पनेके अहंकारके वश होकर इस सृष्टिसे अलग होनेका अनुभव करता है । जैसे कि यह अहंभाव नष्ट होगा "मैं ही चिन्मय हूं" का दैवी-भाव स्थिर होगा और यह मुक्त होगा । श्रागे उसको कभी अहंभावका अनुभव नहीं होगा। (५४७) दर्पण में देखनेसे प्रतिबिंब दीखेगा । वह दृश्य विपरीत होकर प्रति'विव मूलविवमें छिप गया कि अनुपम ब्रह्मके स्मरणसे वह चित् कहलाता है । उस चित्र चिन्नाद, चित्कला, चिबिंदु आदि उस मूल चित्स्वरूप शरणके देह प्राण प्रात्म होकर अंगके पदार्थ बन जाते हैं । वह पदार्थ सब लिंग मुखते

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