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भुक्ताय.
- विवेचन- यह वचनामृतका अंतिम अध्याय है । यह उपसंहार है । मानों यह वचन साहित्यका सार है। इसी दृष्टिसे इन वचनोंका संकलन किया गया है । वचनोंकी उत्पत्ति के विषयमें
वचन--(५३६) कामधेनुका कल्पित माधुर्य भला मृत्युलोकके जानवरोंमें आयगा ? महाशेषके मस्तक पर प्रकाशनेवाला माणिक्य भला तालावके फनियार सांपके सरपर होगा ? ऐरावतके मस्तकपर चमकनेवाला मोती भला मुहल्लेमुहल्ले घूमनेवाले सूअरके माथेपर रहेगा? शरणोंके मनोमध्यमें रूपित शिव अपने शरणोंकी जिह्वाकी नोकपर वचन रूपी परमामृतका दोहन कर, प्रास-पासके गणोंको उसका माधुर्य चखाकर उन शरणों में अपनी परिपूर्णताको दिखाना छोड़ . कर क्या द्वैत-अद्वैत का वाद करनेवालोंमें दिखाएगा धन लगियमोहदमल्लिकार्जुना।
टिप्पणी:-दैवी स्फूर्तिसे प्रकट वाणी ही वचन है । अन्य बातें वचन कहलाने योग्य नहीं।
विवेचनाअब अन्य अनेक अध्यायों में जो विषय आये हैं उन्हीसे संबंधित वचनोंको साररूपसे एक ही अध्यायमें गंथ करके समन वचनामृतका इस अध्यायमें देनेका प्रयास किया गया है : जैसे कि उपसंहार में किया जाता है ।
वचन--(५३७) द्वीपाद्वीप जहां नहीं वहांसे, काल कर्म जहां नहीं वहांसे, कोई कुछ जहां नहीं वहांसे, आदि तीन जहां नहीं वहांसे, सिम्मुलिंगेय चन्नराम नामका लिंग नहीं वहांसे ।।
टिप्पणी:-आदि तीन-ब्रह्मा, विष्णु, महेश ।
(५३८) वेदातीत, षड्वर्ण रहित,अष्टविंशत् कालातीत व्योमातीत, अगम्य अगोचर कुंडलसंगमदेवा।
(५३९) क्या है यह कहनेको नहीं, बोल करके कहनेको नहीं सत्यमें स्थित ऐक्यका प्रतीक जानना ? वह अपने में आप नहीं, क्या है यह कहने को नहीं, शून्यसे कुछ भी नहीं पाया गया। स्वयं आप नहीं अन्य नहीं चिक्कप्रिय सिद्ध लिंग नहीं, नहीं, नहीं ! .. (५४०) तुम्हारा तेज देखने के लिए तड़प तड़पकर देखता रहा, तब शतकोटि सूर्य उदय होनेकासा प्रकाश हुआ। विद्युल्लताओंका समूह देखनेकासा चमत्कृत :
हुमा मन । गुहेश्वरा तू ज्योतिलिंग बना तो उसे देखकर उसकी उपमा देनेवाला ___ कोई है ही नहीं।