Book Title: Santoka Vachnamrut
Author(s): Rangnath Ramchandra Diwakar
Publisher: Sasta Sahitya Mandal

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Page 314
________________ मुक्ताय . ३०१ का पालागन करेगा अंबिगर चौड़या। (५६४) चोरी मत कर, खून मत कर, असत्य न बोल, क्रोध न कर, . दूसरोंके लिए असत्य बात न कर, आत्मस्तुति न कर, पीठ पीछे निंदा न कर, . यही अंतःशुद्धि और यही बाह्यशुद्धि, यही कूडलसंगमदेवके प्रसन्न होनेकाः मार्ग है। टिप्पणीः-सदाचारका अर्थ नीतियुक्त आचार। यही सर्वश्रेष्ठ धर्म है । यह बात वचनकारोंने पुनः-पुनः कही है । उन्होंने यह भी कहा है कि साधकको सवंभूत हितरत होना चाहिए । (५६५) शरणस्थलका मार्ग न जानते हुए "मैं शरण" "मैं भक्त" कहनेवाले कर्मकांडियोंका मुंह नहीं देखना चाहिए। क्योंकि शरण होनेवालोंकी शरण होनेसे पहले अपने चित्तके कोने-कोने में छाये अंधकारको दूर करना चाहिए । शरण होनेके पहले अपनी आत्माके चारों ओर फैले हुए मदको धोना चाहिए । शरण होनेके लिए जहां तहां भटकनेवाले मनको पकड़ते हुए जहां वह गया वहांसे लाकर लिंगमें स्थिर करना चाहिए । शरण होनेके लिए नित्यानित्य जान करके, तत्वातत्वोंका विवेचन विश्लेषण कर महा-ज्ञानके वातावरण में विचरण करना होगा । इस रहस्यका विश्लेषण न जानते हुए, भ्रष्टान्न खाते-. खाते, विश्वके विविध विषय प्रपंचमें विचरण करते-करते, मुक्तिका रहस्य न जानकर, मुक्तिमार्ग न दिखाई पड़नेसे व्यर्थ जीवन खोनेवालोंको देखकर हंस रहा है हमारा अखंडेश्वर ।। (५६६) स्वर्ण खनिकको स्वर्णकरण समूहको देख करके धोना पड़ता है, जाल फेंकनेवाले मच्छीमारोंको मछलियोंसे नेह लगाकर कल्लि (जालका थैला) उतारनी पड़ती है, शिकारियोंको अपना वैभव छोड़कर वृक्षोंके पत्तोंमें छिप करके रहना पड़ता है, ऐसे भिन्न-भिन्न मार्गोका रहस्य जानकर, उनके गुण धर्मका इतिवृत्त जानकर, उनके जीवनकी पद्धतिका अनुकरण करनेवालोंका, भिन्न-भिन्न स्थलोंका सत्य रहस्य जानते हुए, वेषचोरोंका, कार्याकार्यका इंगित देखकर, वंचक धूर्तोकी रीति-नीति जानकर,और किसी प्रकारका अन्य भाव न लाते हुए,अपनी सत्य नीतिको फैलाकर, अपने सद्गुणों को बढ़ाकर, अपने सद्गुणोंकी वासनाको समाजमें . भरकर, भावभक्तिसे सत्यकी ही घोषणा करके रहनेवाला त्रिविधमें तथा षड्वैरियों-- के जालमें नहीं आयगा । वह पंचेंद्रियोंके सुख समूहका दास होनेवाला नहीं, अन्य . अनेक विषय समूहके जाल में प्रानेवाला नहीं। वह स्वयं बसवण्णप्रिय विश्व-- कर्मटक्के कालिका विमल रजेश्वरलिंग ही है । (५६७) मठकी क्या आवश्यकता ? पर्वत किस लिए ? जन जंजाल क्या चाहिए जिनका चित्त शांत है उनको ? और बाह्य चिंता, ध्यान, मौन, जप,.

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