Book Title: Santoka Vachnamrut
Author(s): Rangnath Ramchandra Diwakar
Publisher: Sasta Sahitya Mandal

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Page 257
________________ २४४ वचन साहित्य - परिचय सकता है ? इसलिए "गुहेश्वर लिंगको अपने में देखा जाना," ऐसा कहने वाले महात्मा के लिए सत्क्रियाचरणकी साधना श्रावश्यक है । ( ३१३) गति, मति, चैतन्य, शब्द जिसमें है वह अपनी क्रियाके अनुसार चलेगा । मेरे मन श्रातुरता किस बातकी ? अरे मन ! क्रियानुसार चलो । वृक्ष फूल उगते ही फल पक्व हो जाएगा क्या ? जबतक लिंगमें मन लीन नहीं होगा सकलेश्वरदेव कैसे प्रसन्न होगा ? में टिप्पणी: - क्रियानुसार चलना = सदाचरण से चलना । ( ३१४) विना पकाकर खानेके भूख मिटानेका और क्या प्रकार है ? बिना कर्मयोगके चित्त निर्मल करनेका प्रोर कौन-सा साधन है ? पकाए बिना भोजन करने का और कौनसा प्रकार है कपिलसिद्धमल्लिकार्जुना । टिप्पणी: - देह पोषणका कार्य एक सामान्य सा कर्म है किंतु वह अत्यन्त आवश्यक है । अर्थात् जीवित रहनेके लिए कर्म श्रावश्यक है | यह कहकर वचनकारोंने कर्मका महत्त्व समझाया है । (३१५) कायकके अभाव में भला प्रारण कैसे रहेंगें ? भाव शुद्ध न हों तो भला भक्ति कैसे ? मारप्रिय अमरेश्वर लिंगको पहुँचा है । टिप्पणी: -- विना भाव शुद्धिके भक्ति असम्भव है वैसे ही बिना कायकके जीवित रहना असम्भव है । कायकका अर्थ ईश्वरार्पित काय कार्य, अथवा ईश्वरा - पित शरीरश्रम ! इस वचनमें जो “पहुँचा" शब्द श्राया है वह मूल वचन के " मुट्टिदे" इस शब्द के अर्थ में श्राया है । मुट्टिदे – स्पर्श किया है, पहुँचा है, ऐसे दो भिन्न-भिन्न अर्थ होते हैं । ( ३१६) विश्व में ज्ञानकी प्रतिष्ठा होती है। गाय के शरीर में जो घी होता है, उससे क्या गायको पुष्टि मिलती है ? उस गायको पालकर, दूध, दूहकर, उसे गरमकर, जमाकर, मथकर, मक्खन निकालकर, उसे गरमकर घी बनाकर गायको खिलाने से वह पुष्ट होती जाएगी। वैसे ही सत्कर्मों के उपचारसे ज्ञान प्राप्त होता है । ज्ञानसे सम्यक् ज्ञान होता है । सम्यक् ज्ञानसे प्रारण ही लिंग बनता है इसमें कोई संशय नहीं महालिंगगुरुसिद्धेवरप्रभु । विवेचन - वचनकारोंका कहना है बिना कर्मके सिद्धि नहीं मिलेगी । जीवन में गति, मति, इंद्रिय आदि ठीक है तबतक कर्म करते रहना अनिवार्य है । देह पोपरण के लिए भी कर्म करना पड़ता है । केवल ज्ञान ही सर्वोच्च है, किंतु ऐसा कहने से ही वह कहींसे श्राकर मस्तिष्क में नहीं घुसेगा । सत्कर्मों के द्वारा उसको प्राप्त करना पड़ता है । सत्कर्मोसे ही वह विकसित होगा, तभी सिद्धि सम्भव है । "जीवनमें कर्तव्य कर्म करना अनिवार्य है" यह सिद्धान्त मान्य करने पर

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