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. साधनामार्ग-कर्मयोग विवेचन-पिछले दो अध्यायोंमें ज्ञान और भक्ति इन दो साधना-मार्गोका विचार किया गया, इस अध्यायमें कर्ममार्गके विषयमें वचनकारोंने -क्या कहा है, इसका विचार करें। कर्म शब्दका मूल अर्थ अत्यंत व्यापक है । प्रत्येक प्रकारकी बाह्य और आंतरिक हलचल अथवा अंतरबाह्य शक्तिका प्रयोग कर्म कहलाता है । इस दृष्टिसे विचार करने पर, ध्यान, ज्ञान संपादन, . एकाग्रता, भक्ति, यह सब कुछ कर्म कहा जाएगा। इतना ही नहीं, कर्मके अत्यंत विरोधसी दीखने वाली क्रिया निद्रा, विश्रांति, आलस्य, मृत्यु आदि भी एक प्रकारसे कर्म ही है । किंतु यहाँ एक विशिष्ट और संकुचित अर्थमें कर्म शब्दका प्रयोग किया गया है । यहाँ "अपने व्यक्तिगत तथा सामूहिक जीवनकी धारणा और विकासके लिये अपनी शक्ति और परिस्थितिके अनुसार किया जानेवा कर्तलाव्य" इस अर्थ में कर्म शब्दका प्रयोग किया गया है।
जैसे ज्ञान का श्राधार बुद्धि और भक्तिका अाधार भाव है वैसे ही ‘कर्मका आधार मनुष्यकी संकल्प शक्ति है। किसी कामको करनेकी संकल्प शक्ति, तथा उस संकल्पको कार्य में परिणत करनेकी कर्मेन्द्रियोंकी शक्ति दोनों मिलकर 'क्रिया शक्ति कहलाती है. । शुद्ध ज्ञान प्राप्त होनेके लिये जैसे निर्दोष निरीक्षण विवेचन, शुद्ध तर्क आदिकी आवश्यकता है वैसे ही मुक्त कर्मके लिए निर्मल संकल्पशक्तिकी अावश्यकता है, निष्काम समर्पणभाव, और निरंहकार उत्साहयुक्त क्रिया शक्तिकी अवश्यकता है ।
. इस प्रकार किया जानेवाला कर्म साधकके लिए बंधनका कारण नहीं होता किंतु मुक्तिका साधन होता है । ऐसे कर्मको वचनकारोंने योग-युक्त कर्म कहा है। वचनकारोंने इस साधनामार्गको भी स्वतंत्र स्थान नहीं दिया है । ज्ञान, भक्ति, क्रिया और ध्यान, इन चारों साधनोंको अविभाज्य रूपसे प्रयोग करनेका समन्वय मार्ग अथवा पूर्णयोग ही वचनकारोंका साधनामार्ग है। इसीको उन्होंने कहा है। किसी भी साधना मार्गका विचार करते समय वचनकारोंके इस .. 'विशिष्ट दृष्टिकोणको स्मरण रखना अत्यावश्यक है। .. वचन-(३१२) क्रिया-मन्थनसे पहले क्या ईश्वरकी मधुरता चखी जा सकती है ? विना मथन-क्रियाके दूध में जो मक्खन रहता है, जो घी रहता है यह पा सकते हैं ? लकड़ीमें स्थित अग्नि मथन क्रियाके बिना देखा जा