________________
षट्स्थल शास्त्र और वीर-शैव संप्रदाय २८७ प्राप्त लिंग वीरशैव गुरुके हाथमें देकर पुनः उससे प्राप्त करना होता है। यह वचनकारोंका स्पष्ट सुझाव है।
वचन-(४६२) चाहे ब्राह्मण हो, क्षत्रिय हो, वैश्य हो, शूद्र हो, वह किसी भी जातिमें पैदा हुआ हो, जब वह दीक्षित होगा, गुरु-कारुण्यसे लिंग धारण करेगा, प्राचार-संपन्न होकर सत्कार्य रत होगा तो महात्मा बनकर तीनों लोकोंका अधिकारी होगा अखंडेश्वरा ।
(४६३) वह दर्पण अपना हो तो क्या या औरोंका हो तो क्या ? अपना -रूप दिखाई पड़ा तो पर्याप्त है न ? सद्गुण कौन हो तो क्या अपनेको जान लिया कि हुआ सिलिगेय चन्नरामा।
टिप्पणीः-शिष्यको आत्मबोध कराना ही गुरुका मुख्य लक्षण है अन्य -सव गौण हैं।
(४६४) भवित्वसे उकताकर भक्त होनेकी इच्छा करनेवालोंको सद गुरुकी खोज करके, गुरु कारुण्यसे मुक्त होनेकी इच्छासे गुरुको दंडवत् प्रणाम करना चाहिए, भय-भक्तिसे हाथ जोड़कर विनयसे प्रार्थना करनी चाहिए "हे प्रभो ! मेरा भवित्व नष्ट कर अपनी दयासे भक्त बना दे।" ऐसी प्रार्थना करनेवाले, अपनी किंकरतामें रहनेवाले, श्रद्धायुक्त, शिष्यों को श्रीगुरु अपनी कृपायुक्त दृष्टिसे देखकर उस भविको, पूर्वाश्रमसे छुटकारा दिलाकर पुनर्जन्मसा देता है। उसके शरीर पर लिंगप्रतिष्ठा करनेका क्रम..... उरिलिंगपेछिप्रिय विश्वेश्वरा ।
टिप्पणी:- वचनकारोंकी यह मान्यता है कि दीक्षा लेने के पहले मनष्य 'भवि होता है । भविका अर्थ वद्ध है। वीरशैव लोग उन लोगोंको भवि कहते . हैं जिसने दीक्षा नहीं ली हो । भवित्व-बद्धत्व ।
शिष्यको किस भावसे गुरुकी ओर देखना चाहिए और गुरुको किस भावसे शिष्यकी ओर देखना चाहिए यह ऊपरके वचनमें कहा गया है । आगे दीक्षाकी 'पद्धति तथा गुरुके यथार्थ रूपका वर्णन है ।
(४६५). "गुरु स्थल अपने आपमें स्वयं ज्योति प्रकाश है । वह स्वयं ज्योति प्रकाश "भांति" कहकर जब दूसरी ज्योति जलायगा तो वह ज्योति अपने जैसी जलायगा....... कूडल चन्नसंगमदेवा।
(४६६) शून्यको मूर्ति बनाकर मेरे करस्थल में दिया श्रीगुल्ने, शून्यकी मूर्तिको अमूर्ति बनाकर मेरे प्राणमें प्रतिष्ठित किया श्रीगुरुने, शून्यके शून्यको चाहनेसे शून्यको भावमें भर दिया श्रीगुरुने । इससे मेरा करस्थल, मनस्थल, भाव-स्थल उसकी धारणा करके अंगलिंग संबंधी वना महालिंगगुरु सिद्धेश्वर