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प्रकीर्ण
विवेचन-अब तक विषयानुक्रमसे वचनोंका चुनाव करके उनका विव। रण दिया गया है । अब वचनोंकी विविधताका भी थोड़ा दर्शन करें। इसमें संशय नहीं कि इनमेंसे कई वचन, विषयानुक्रमसे भिन्न-भिन्न अंध्यायोंमें : सम्मिलित किये जा सकते थे। किंतु प्रकीर्ण नामका यह स्वतंत्र परिच्छेद बनाना अधिक अच्छा समझा गया ।
वचनोंके महत्त्वके विषयमें
वचन--(५१६) शास्त्र तो मन्मथ शास्त्र है और वेदांत शुद्ध मनोव्याधि । पुराण तो मरे हुए लोगोंके गंदे गप हैं। तर्क बंदरका खेल है। आगम तो :योगकी चट्टान है और इतिहास राजा रानियोंकी कहानी। स्मृति पाप पुण्यका विचार है तो प्राद्योंका वचन अत्यंत वेद्य है कपिलसिद्ध मल्लिकार्जुना तुम्हें जाननेमें।
(५१७) हमारी चाल चलनेके लिए पुरातनोंके वचन ही आधार हैं। स्मृति समुद्रमें जाय । श्रुति बैकुंठ जाय । पुराण भाड़में जाय । आगम हवामें : उड़ जाय । हमारे वचन कपिलसिद्ध मल्लिकार्जुनके हृदयकी गांठ बनकर रहें।
टिप्पणीः--यहांपर वचनकारोंने छातीपर हाथ रखकर वचनोंका महत्त्व गाया है। उनका कहना है, वेदोंमें, पुराणोंमें ज्ञान नहीं है, वह तो मनुष्यके : हृदयमें है।
(५१८) वेदवाक्य विचारोंका बीज है, शास्त्र वाक्य संशयका बीज है। पुराण पुण्यका वीज है। भक्तिका फल संसारका बीज है । एको भावकी निष्ठा सम्यक् ज्ञानका बीज है। सम्यक् ज्ञान अद्वैतका बीज है। अद्वैत ज्ञानका बीज है । ज्ञानी प्रतीक रहित, चिन्ह रहित लिंगमें समरस हो करके रहना ही जानता है उरिलिंग पेछिप्रिय विश्वेश्वरा ।
(५१९) अनंत वेद, शास्त्र, पागम, पुराण, तर्क तंत्र, सव. प्रात्माको बनाते हैं किन्तु आत्मा उन्हें नहीं बनाता। मेरे अंतरंगकी ज्ञानकी मूर्ति बनकर उरिलिगदेव संकल्पसे रहा। "
टिप्पणी:- अंतःज्ञान सबसे श्रेष्ठ है । आत्म प्रकाशसे ही सव होता है। यही वचनकारका अभिमत है। अब वचनकारोंके मतसे भगवान किसको और कैसे दीखता है यह देखें। ... .
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