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वचन-साहित्य-परिचय (४६७) वेद्या दीक्षा, मंत्र दीक्षा, क्रिया दीक्षा इन दीक्षात्रयसे अंगत्रयके: पूर्वाश्रयको नष्ट करके श्रीगुरुने अपने हस्तसे शिष्यके मस्तकपर लिंगत्रयका संयोजन किया। मंत्र दीक्षाके रूपमें श्रीगुरूने कानमें प्रणव पंचाक्षरीका उपदेश दिया, क्रिया दीक्षाके रूपमें उस मंत्रको रूपित करके इष्टलिंग बनाकर कर-स्थलमें दिया, तब वेद्या दीक्षासे कारण शरीरके पूर्वाश्रय नष्ट होकर इष्ट लिंगका संबंध जुड़ा । अंगत्रयमें लिंगत्रयका धारण किया है. महालिंग गुरु शिव सिद्धेश्वर प्रभु।
टिप्पणी:-पूर्वाश्रय=पाणवमल, मायामल, कार्मिकमल । प्रणवपंचाक्षरी=ओं नमः शिवाय ।
(४६८) मेरे कर-स्थल मध्यमें परम निरंजनका प्रतीक दिखाया । उस प्रतीकके मध्यमें उसको जाननेके ज्ञानका प्रकाश दिखाया। उस प्रकाशकेमध्यमें महाज्ञानकी उज्ज्वलता दिखाई। उस उज्ज्वलताके स्थानपर मुझे. स्वयंको दिखाया। मुझमें अपनेको दिखाया, मुझको विश्वाससे अपनेमें रखे हुए महागुरुको 'नमो नमः नमो नमः' करता हूं अखंडेश्वरा।
टिप्पणी:-इस वचनमें सूक्ष्मसी दीक्षा पद्धति कही गयी है । उपरोक्त वचनोंके अनुसार आत्मज्ञान करा देनेवाला ही सच्चा गुरु है । लिंग परमात्माका प्रतीक है । उसकी सहायतासे अथवा उसके सहारे, उसकी पूजा, ध्यान आदिसेः निर्गुणको जानना इस संप्रदायकी साधना पद्धति है। इसलिए इस संप्रदायमें लिंगका बड़ा महत्त्व है।
(४६६) लिंग पर-शक्तियुत परशिवका अपना शरीर है। लिंग पर-शिवका दिव्य तेज है । लिंग पर-शिवका निरतिशयानंद सुख है । लिंग षड़ध्वम् जगज्जन्म भूमि है । लिंग अखंड वेद है उरिलिंग पेद्दिप्रिय विश्वेश्वरा ।
(५००) कुछ लोग लिंगको स्थूल कहते हैं, लिंग स्थूल नहीं है । कुछ लोग लिंगको सूक्ष्म कहते हैं, लिंग सूक्ष्म नहीं है। स्थूल सूक्ष्मके उस पारके ज्ञानरूप परब्रह्म ही लिंग है, इस अनुभवजन्य ज्ञानका प्रखंड रूप निजगुरु स्वतंत्र सिद्धः लिगेश्वरके ज्ञानका स्थान है और कुछ नहीं।
(५०१) आकाशमें विचरण करनेवाले पतंगका भी कोई मूल सूत्र होता है । शूरको भी तलवारकी आवश्यकता होती है, भूमिके अभावमें भला गाड़ी कैसे चलेगी ? अंगको विना लिंगके निःसंग नहीं होता। कूडलचन्नसंगमः देवके संगके विना निःसंग हुआ ऐसा नहीं बोलना चाहिए।
(५०२) जो सुगंध तिल में नहीं वह भला तेलमें कहांसे आयगी ? जव तक देहपर इष्टलिंग धारण नहीं किया गया प्राणलिंगसे संबंध कैसे होगा ! इसलिए गुहेश्वरलिंगमें इष्टलिंगके संबंधके विना प्राणलिंगका संबंध नहीं