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वचन साहित्य - परिचय
टिप्पणी : - प्राध्यात्मिक साधनाके क्षेत्रमें सकाम कर्मका कोई स्थान नहीं है । क्योंकि कामनायुक्त कर्म बँधनका कारण है । वचनकारोंने बार-बार इस बातको अच्छी तरह समझाया है ।
( ३३६) तन मांगा तो तन मिलेगा, मन मांगा तो मन मिलेगा, धन मांगा तो धन मिलेगा तुम्हारे शररणोंको, किन्तु "मुझे चाहिए" यह भाव भी मनमें आया तो तेरे चरणोंकी सौगंध ! तन मन वचनसे बिना तेरे श्रीर कुछ चाहा तो पुनः संसार रूपी घोर नरकमें रख कूडलसंगमदेवा ।
( ३३७ ) अमृतको भूख है क्या ? पानीको क्या प्यास है ? महापुरुषोंको कैसी विषयाशा ? सद्गुरु करुणासे लिंगार्चन करनेवाले शिवशरणों को भला मुक्तिकी भी आशा कैसी ? उनका तो वह स्वयंभू सहज स्वभाव है । स्वयं तृप्तिने कभी शांति खोजी है क्या उरिलिंगपेद्दि प्रिय विश्वेश्वरा ।
टिप्पणी : -- यह निरपेक्ष निष्काम कर्मका अंतिम आदर्श है । अपने अंतिम साध्यकी भी आशा नहीं की जानी चाहिये यह वचनकारोंने कहा है ।
(३३८) मुक्ति अपने गले में लटका लो, मुक्ति पद अपने ही हृदयमें भोंक लो, मुझे तुम्हारी यह सेवा ही पर्याप्त है महालिंगकल्लेश्वरा अपना वह परम पद सिरमें लपेट लो !
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टिप्पणी :- कर्मयोगीको अपना कर्म करते समय जिस कर्मानंदका अनुभव होता है उसमें ही वह इतना तन्मय रहता है कि उसे अपने अंतिम साध्य मुक्तिका भी महत्व नहीं रहता । उसकी साधना ही साध्य रूप बन जाती है । साध्यको भी भूलकर जो साधना में तन्मय हुआ उसका साध्य उसके पास आकर वरण करेगा |
विवेचन - काम्य बुद्धिसे किया हुआ कर्म भगवानको अर्पित नहीं होता ऐसा वचनकारोंका कहना है काम्य बुद्धिसे किये गये सत्कर्म से भी कर्म बंध नहीं छूटता । सकाम कर्म काम्य कायक है सकाम भक्ति भी ईश्वरार्पित नहीं हो सकती | निरहेतुक प्रेम जैसे भक्तिकी श्राधारशिला है वैसे ही निष्काम कर्म, कर्म-मार्गको आधारशिला है । सच्चा कर्मयोगी निष्काम भावसे अपना सर्वस्व परमात्मार्पण करके सतत कर्मरत रहता है । उसकी मुक्तिकी इच्छा भी परमात्मार्पण होती है । ऐसी हालत में भला उसकी श्रोर कौनसी श्राशा श्राकांक्षा रहेगी ? ऐसा निष्काम निरपेक्ष कर्मयोगी हो भगवानको तेरा मुक्ति पद भी गलमें लटका ले, कह सकता है । ऐसा साधक निर्भय रहता है । ऐसे कर्मयोगीकी अंतिम स्थिति कैसी होती होगी ? वचनकारोंने जो उसका वर्णन किया है उसका दर्शन करें !
वचन - ( ३३९) कार्य करते समय यदि मैंने अपनेको जानकर कार्य किया
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