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साधनामार्ग-ज्ञान, भक्ति, क्रिया, ध्यानका संबंध
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भक्ति, ज्ञान, ध्यानका इतना निकट संबंध है । यह सब जैसे वृक्षकी जड़, तना, डाल, पत्ते, फूल, फल आदिका निकट संबंध है वैसे ही निकट संबंधित हैं ।
वचन-(३६८) भक्ति जड़ है, विरक्ति उसका वृक्ष, उसका फल है ज्ञान, पक्व होकर पेड़से टूटा कि परमज्ञान बना, उसको चूसकर खाया कि अंतर्ज्ञान हुअा, उस सुख में तन्मय हुआ कि दिव्यज्ञान हुआ। वह दिव्यज्ञान प्रात्मज्ञान हुआ कि पूर्णता हुई। उसे (पूर्णताको) महान् कहने में कोई संशय नहीं है चन्न बसवण्ण प्रियभोग मल्लिकार्जुन लिंग अप्रमाण होनेसे । ... (३६९) साधनाका आश्रय पाने तक अर्चनाकी आवश्यकता है । तथा पुण्यको जानने तक पूजाकी । शरीर रहने तक सुख दुःखका अनुभव अनिवार्य है । डोंगी पर खड़े हो जानेसे ही नदी पार हो जानेकी भांति क्रिया-शुद्धि होते ही ज्ञानकी प्रतीति होती है। यह सर्वमयी युक्ति है ईशान्य मूर्ति मल्लिकार्जुन लिंगको जाननेकी शक्ति है।
(३७०) किये जाने वाले कर्म से ही अन्य बातें जानी जा सकती हैं । ज्ञानसे श्रद्धाका साथ होना चाहिए । ज्ञानको श्रद्धाका साथ मिलनेसे शून्यका भ्रम दूर होकर हमारे गुहेश्वर लिंगमें प्रात्मपद प्राप्त कर देगा मारैया।
टिप्पणीः-शरीरादिके रहने तक, शरीरका भान रहने तक, कर्म करना आवश्यक है । वह अपरिहार्य है । उस कर्मके द्वारा ही साधकको ज्ञान प्राप्त कर लेना होता है । ज्ञान होनेके बाद भी कर्म नहीं छोड़ना चाहिए, कर्म करते रहना चाहिए यह वचनकारोंका कहना है । __ (३७१) सत्कर्माचरण नहीं हुआ तो ज्ञान होकर भी क्या लाभ ? केवल स्मरण करते रहने से बिना कर्मके वह ज्ञान कैसे व्यक्त होगा ? अंधा मार्गावलोकन नहीं कर सकता और लंगड़ा चल नहीं सकता । विना एकके साथके मार्ग काटना संभव नहीं। ज्ञानरहित कर्म जड़ है और कर्मरहित ज्ञान भ्रमका नाम है; इसलिए सोमनाथमें उन दोनोंकी आवश्यकता है ।
(३७२) आग जलाना जानती है चलना नहीं और हवा चलना जानती है जलाना नहीं। आग और हवा मिलकर एक दूसरेके साथ जलाते चलते हैं इसी प्रकार मनुष्यको कर्म और ज्ञानकी श्रावश्यकता है रामनाथा।
(३७३) क्रिया ही सर्वतोपरि है ऐसा कहनेवाले बड़े-बड़े सिद्धान्तियोंकी • बात मुझे अच्छी नहीं लगती। क्योंकि जैसे कोई पक्षी अपने दोनों पंखोंसे गगन
विहार करता है वैसे ही अंतरंगमें सम्यक् ज्ञान और बहिरंगमें सत्कर्म यही ज्ञान __ संपन्न शिवशरणोंका शरणपथ दिखाकर मेरी रक्षा करो अखंडेश्वरा।
(३७४) विना कर्मके ज्ञान निरर्थक है क्योंकि बिना शरीरके प्राणका क्या आश्रय है ? तथा विना प्राणके शरीरमें चैतन्य कैसे पाएगा? अर्थात् बिना कर्मके ज्ञानका आधार नहीं और विना ज्ञानके कर्मका प्रयोजन नहीं। क्रिया