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साधक के लिये श्रावश्यक गुरण-शील कर्म
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और क्या मैं तुमसे मुक्ति मांगता हूं ? यह तो तुम्हारा पद है । सकलेश्वरा ! मैं नहीं चाहता । मैं नहीं चाहता वह सब ! मुझे तुम्हारे शरणोंका संग मिला, वह बहुत है ।
विवेचन - अनुभव करनी कथनी रहित गुरु है । वह मुग्धरूपसे हमें सब सिखाता है । साधकको वही सन्मार्ग पर चलाता है । वही काम सत्संग करता है ।
श्रहंकार हमारा सबसे बड़ा शत्रु है । उसे शत्रुको अंदर रखकर मुक्तिकी आशा करना व्यर्थ है । देखने में हमारा शरीर समाजके ग्रन्य लोगों से भिन्न सा लगता है किंतु वस्तुतः ऐसा नहीं है । वह समाजसे तथा विश्वके अन्य अनेक तत्वोंसे ताने-बानेकी भांति वुना हुआ है । मैं विश्वसे अलग हूं यह भाव ही अहंकार है । इस अलगाव से स्वार्थ जनमता है । वस्तुतः सव परमात्माका है, परमात्ममय है ।
वचन - (४००) मैं तू यह अहंकार जहां श्राया कपट कुटिल कुहक तंत्रको हवा बहने लगी; वह हवा ग्रांधी बनी, प्रांधी चली कि ज्ञानज्योति बुझी, ज्ञानज्योति वुझते ही "मैं जानता हूं" कहनेवाले सब तमांधकार में, राह भूलकर, मर्यादा खोकर निर्नाम हुए हैं गुहेश्वरा ।
(४०१ ) भक्ति विना मेरी गति बिना तिलहनके कोल्हू खींचनेवाले बैलोंकीसी हो गयी, पानी में भींगे नमककी-सी हो गयी । कूडलसंगमदेवा "मैंने किया" रूपी ज्वालाओंोंने मुझे जलाया रे ! अब भी क्या कम हुआ प्रभु ?
(४०२) तुम कहते हो मद्य मांसको नहीं छूते हैं हम । तो क्या ग्रष्टमद मद्य नहीं है ? संसारका संग मांस नहीं है ? जिसने इस उभय अवनतियोंका अतिक्रमण किया है उन्हीं को गुहेश्वरलिंग में लिंगैक्य मिलेगा ।
टिप्पणी: - अन्न, अर्थ, योवन, स्त्री, विद्या, कुल, रूप और उद्योग इन आठ प्रकार के अभिमानको प्रष्टमद कहा गया है । इस अष्टमदकी भांति श्राशा, श्राकांक्षा ग्रादिको भी अत्यंत त्याज्य माना गया है । आशा ही सब प्रकारके दोपोंका मूल है |
(४०३) रे मन ! क्षुद्र ग्राशा व्यर्थ है वह नहीं करना । जंगलमें पड़ी चांदनीकी संपत्ति सच्ची नहीं है । कभी न विकृत होनेवाला सर्वोच्च पद पाने के लिए कूडलसंगमदेव की पूजा कर ।
धागोंसे अपनेको हो
(४०४) जैसे मकड़ी प्रपने स्नेहसे घर बांधकर अपने कसकर मरती है वैसे ही मैं जो मनमें श्राया सो चाहते हुए तड़प रही हूं न ! मुझे मनकी दुराशा से मुक्त करते हुए अपनी राह दिखाग्रो रे मल्लिकार्जुना ।
उसी चाह में बंधकर