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वचन-साहित्य परिचय (४४६) मनका संशय सपनेका भूत बनकर दोखता है। मनका संशय मिटा कि सपनेका भूत दूर हुप्रा देख महालिंग गुसिद्धेश्वरप्रभु ।।
(४५०) स्वामीका भवत होकर कादम बढ़ाकर भागे जाते समय असगुनके रूपमें कोवा, पंछी, बिल्ली, गदहा, सांप प्रादिको देखकर कदम रोका, मन, शंका-कुशंका और संकल्प-विकल्पक प्राधीन हुआ तो प्रतभंग हा । गरण शिवचरणसे दूर हुमा है। क्योंकि, मनको, शरीरगत प्राचारको, ज्ञानपूर्ण व्रतनियममें रखा तो इससे बढ़कर परिहारका पया मायन? ऐना सत्मियात्मक कप्टकर जीवन के प्रतीक पीछे पड़ा तो वह प्राचारष्ट और हैं एपेश्वरलिंगसे दूर।
टिप्पणी:-भक्तको कोई निश्चय करनेपर सगुन-अनुगनके श्राधीन नहीं होना चाहिए । वह सामान्य लोगोंके लक्षण हैं। भत्तीको ऐसी बातोले चित्तको भ्रष्ट नहीं करना चाहिए।
(४५१) मलिनतामेंसे पैदा होकर पवित्र गुल खोजता है गया ? अरे मातंगीका पुत्र है तू ! मरे हुए को खी वनेवाले नयों नीच हैं ? तुम वारा लाकर मारते हो, तुम्हारे शास्त्र वेचारे बकरेकी मौत हैं । वेद क्या हैं ? यह तुम जानते भी नहीं। कूडलसंगमदेवके शरगा कामरहित हैं । शरण सन्निहित हैं। अनुपम नरिन हैं। उनकी दूसरी उपमा है ही नहीं।
टिप्पणी:-मालिन्य जाति या कुल में नहीं कर्म में है। प्रत्येक मनुष्य मालिन्यमेंसे पैदा होता है इसलिए मलिन है।
कन्नड़ भापामें "स्त्रीरज"को "होले" कहते हैं और "अंत्यज"को "होलेय"। होलेयल्लि हट्रिदात होलेय होलेमें जो पैदा होता है वह होलेय है। यहां श्लेष है। अंत्यज होलेय है, होलेमेंसे जो पैदा हुआ वह होलेय है, अर्थात् रजमैसे उत्पन्न प्रत्येक अंत्यज है।
(४५२) काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर, राग, द्वेपरूपी शरीरावयवमें राग-द्वेष प्रादि द्वंद्वोंका गमनागमन होते हए "अहं ब्रह्मास्मि" का कोरा भाषाद्वैत शोभा नहीं देता । विश्वास रखकर सुखसागरको जान उरिलिंगधिप्रियविश्वेश्वरा।
(४५३) व्याध, जालगार (जाल फैलाकर मछली पकड़नेवाला) हेमचोर आदिकी भांति धोखेबाज बनकर ब्रह्मको वातें करते हुए, संसार सागरमें डूबतेडूबते, रचते-पचते, सिसकते-रोते हुए भी ब्रह्म सन्मानका सुख लूटना चाहते हो ? ऐसा नहीं बोलना चाहिए, अवसर नहीं खोना चाहिए, कर्म जानकर उसको नहीं छोड़ना चाहिए । यही ज्ञान है । यह रहस्य जानकर चलनेवालोंको छोड़ दिया जाय तो औरोंको कालकर्मातीत त्रिपुरांतकलिंग जानना असंभव है।