Book Title: Santoka Vachnamrut
Author(s): Rangnath Ramchandra Diwakar
Publisher: Sasta Sahitya Mandal

View full book text
Previous | Next

Page 288
________________ विधि - निषेध २७५ ( ४५४) लोगोंने पूछा, पीछा किया, तो शुभलग्न कहो बाबा ! राशि, कूट, गणादि संबंध है ऐसा कहो वावा ! 'चंद्रबल, तारा वल, गुरुवल है, ऐसा कहो, कलसे आजका दिन ही पूजाके लिए अच्छा है ऐसा कहो कूडलसंगम देवकी पूजाका फल मिलेगा । ( ४५५ ) श्राजकल ऐसा मत कहो, शिवशरणोंको सव दिन एकसे हैं । न भूलकर हमारे कूडलसंगमदेवका स्मरण करनेवालेके लिए सब दिन एकसे हैं । टिप्पणीः - ऊपर के वचनोंमें कहा गया है कि अद्वैत बातोंका विषय नहीं है । वह अनुभवका विषय है । योग्य सत्कर्म करते हुए उसे जानना चाहिए । वैसे ही सगुन प्रसगुन में विश्वास नहीं करना चाहिए । शिवशररणों के लिए हर क्षरण शुभ है । वचनकारोंने यह भी कहा है कि पापक्षालनका उत्तम साधन पश्चात्ताप है । प्रायश्चित्तका दंभ नहीं है । (४५६) भक्तोंकी एक ही बात है, केलेका एक ही फल है । यदि विरक्त छोड़े हुएको पकड़ेगा तो मरे हुएका मालिन्य है । और सत्कर्मों में चलनेवालों को अपना नित्य नियम छोड़कर बुरे रास्ते पर चलकर धनदानसे अपना पाप परिहार करनेका ढोंग रचते देखा तो महलशंकरप्रियसिद्धरामेश्वर लिंग मिलकर भी वात नहीं करेंगे । (४५७) अरे पाप कर्म करनेवाले ! अरे ब्रह्महत्या करने वाले ! एक वार शरण आओ रे ! एक वार शरण प्रायो तो पाप कर्म भाग जायंगे । सब प्रकार के प्रायश्चित्तका वह स्वर्ण पर्वत है, उस एकको शरण आओ हमारे कूडलसंगम देवको । टिप्पणी:- पैसा देकर, दान देकर, पंडितोंसे प्रायश्चित्त, मुद्रा लगवा लेना, पाप से मुक्त होने का साधन नहीं है । उसका साधन है परमात्मा की शरण और पश्चात्ताप | (४५८) परमार्थकी बातें करते हुए हाथ फैलाकर दूसरोंसे मांगना बड़ा कष्टकर है । पुरातनोंकी भांति वोलें क्यों श्रोर किरातों की भांति बरते क्यों ? श्राशासे, इच्छासे क्यों बोलते हो ? आशासे इच्छासे परमार्थ की बातें करना मूत्रपान करनेकासा है ! शिवशरण कभी ऐसा करेगा ? वचनसे ब्रह्म की बातें करतेकरते मनसे आशाका पाश बुनना देखकर मुझे घृणा होती है महालिंगगुरु सिद्धेश्वरप्रभु । टिप्पणी :- पुरातन वीर शैवोंमें "पुरातनरु" अथवा "आधरु" कहकर ६३ शैव संतोंकी पूजा होती है । उनको ग्रादर्श पुण्य-पुरुष माना जाता है । किरातशिकारी ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319