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विधि - निषेध
मार्ग स्वीकार करो, ऐसा उपदेश दिया है ।
( ४७६ ) हठयोग, लुंबिका यादि कहकर ग्राकुंचन करना, वज्र अमरिका कल्प आदि कहकर मलमूत्रोंका सेवन करना, नवनाथ सिद्धोंका मत कहकर कापालिकाचररणका आचरण, उसका अनुकरण शिवशरण नहीं करता । अथवा मस्तिष्क के वात पित्त कफादि निकालकर उसको अमृत कहनेका हीन दृश्य विश्वके संमुख वह नहीं रखता । वहनेवाला सव पानीका परिणाम है । रस, क्षीर, घृत, फलादिका ग्रहण करते हुए अन्न छोड़नेकी भूत चेष्टा शिवशरण नहीं करते । यह सब गड़बड़ है, मिथ्या है, भ्रम है, ऐसा निर्धार है तुम्हारे शरणोंका गुहेश्वरा ।
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टिप्पणी-वचनकारों का कहना है कि शरणपंथ सरल है । इसमें कुटिल, कुहक, कपटादिके लिए तथा किसी प्रकारके ढोंग-सोंगके लिए स्थान नहीं है । उन्होंने वैराग्यके विषय में भी कहा है ।
( ४७७ ) अर्थ संन्यासी होनेसे क्या लाभ ? कहीं से आनेपर भी उसे नहीं लेना चाहिए । स्वाद संन्यास लेनेसे क्या लाभ ? जिह्वाकी नोकसे वस्तुकी माधुर्य-प्रतीति नहीं होनी चाहिए । स्त्री संन्यास लेने से क्या लाभ ? जागृति सुषुप्ति, स्वप्न में भी तटस्थ रहना चाहिए । दिगंबर वननेसे क्या लाभ ? मन आवरया मुक्त होना चाहिए। इस प्रकार शरण मार्ग पर नहीं चलने से सब नष्ट हुए मल्लिकार्जुन ।
( ४७८ ) स्वांग कहां नहीं होता ? वेश्याओंों में नहीं होता ? भांडों में नहीं होता ? बहुरूपियोंमें नहीं होता ? स्वांग दिखाकर अपनी रबड़ी-रोटीका प्रबंध कर लेनेवाले भांडोंमें सत्य भक्ति कहां से आएगी ? प्राचार ही प्रारण है, रामेश्वर लिंग में ।
( ४७९) पुण्य पाप सब अपना-अपना इष्ट हैं । " अजी” कहने से स्वर्ग नोर “अवे ! " कहने से नरक है । " देव भक्त जय जय" ऐसी भाषामें कैलास समाया है कूडलसंगमदेवा |
( ४८० ) न मैं ब्रह्म पद चाहता हूं न विष्णु पद, मैं रुद्रपद अथवा अन्य कोई पद भी नहीं चाहता कूडलसंगमदेवा ! अपने शरणों के चरणों में बैठनेका महापद दे मेरे प्रभु !
टिप्पणीः - शरण सदैव नम्र होता है । वह और अधिक नम्र बननेका प्रयत्न करता है । वह कुल - जाति आदिको भी महत्त्व नहीं देता ।
(४८२) देवादिदेव मेरी विनय सुन ! ब्राह्मणसे अंत्यज तक सब शिवशरण एकसे हैं प्रभु ! ब्राह्मणोंसे चांडाल तक सब संसारी एकसे हैं । मेरे मनका यह विश्वास है । मेरी कही हुई इस बात में तिलके नोक इतना भी संशय हो तो
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