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वचन-साहित्य-परिचय
भक्तको प्राशासे कोई काम नहीं करना चाहिए। साधना पथपर आगे बढ़ते जानेपर अनेक प्रकारकी सिद्धियां मिलना असंभव नहीं है। साधकको न उनकी इच्छा करनी चाहिए न उनका उपयोग। इससे साधनाकी हानि होती है । कभी-कभी वह सिद्धियां भ्रामक भी होती हैं ।
(४५६) "अग्नि स्तंभ' (एक विद्या जिससे अग्निकां परिणाम नहीं होता); की रक्षण होते हुए घर जल गया । दक्षिणवर्ती शंख (जो लक्ष्मीका रूप माना जाता है) होते हुए भी अपना स्थान-मान खोया । एकमुखी रुद्राक्ष (जो सर्व कार्य सिद्ध करने वाला होता है) रहते हुए काम नहीं बना, यह सब साधकर भी नहीं सा हुआ गुहेश्वरा।
टिप्पणी:-बलमुरि शंख-दाहिनाशंख जो संपत्तिका लक्षण माना जाता है ।। एकमुखी रुद्राक्ष, सर्वकार्य सिद्धकर माना जाता है ।
(४६०) रसवादोंको सीखनेसे लोहसिद्धि होती है रससिद्धि नहीं । अनेक कल्प, योग, अदृश्य वस्तुओंको सीखनेसे शरीरसिद्धि होगी आत्मसिद्धि, नहीं। अनेक प्रकारके वाग्वादोंसे ढेरों वाक्सुमनोंकी माला गूंथी जायगी पर प्रात्मा हित कहां ? गोरक्षपालक महाप्रभु सिद्धसोमनाथ लिंग तू मैं हुआ किंतु उस लिंगमें विलीन होकर मैं लिंग नहीं बना।
(४६१) कवि-साधक, सव अकुलाकर बैठ गए, विद्या साधक सब बुद्धिहीन' होकर बैठ गए। पवन-साधक तो चील कोवे बनकर उड़ गए। जल-साधक मेंढक और मछली बनकर डूब गए । अन्न-साधक प्राणी भूत बन गये गुहेश्वरा ।
टिप्पणीः-वचनकारोंने जैसे सिद्धियोंकी निष्फलता बताई है वैसे ही संयम और निग्रहका भेद बताया है । वचनकार निग्रहके विरोधी हैं किंतु संयमका अर्थः है इंद्रियों को अपने समुचित विकासके लिए स्वातंत्र्य देना।
(४६२) ज्ञानका प्रतीक न जाननेसे शरीर और मनको रुलाकर गला' देनेसे क्या लाभ ? इंद्रिय निग्रहसे विषयोंको बांधकर आत्मवंधन करनेसे आत्मा वंधन होगा उससे और क्या होगा ? शरीर सुखानेसे पेड़ोंको लाकर धूपमें सुखाने कासा होगा। शरीर सुखानेसे क्या लाभ ? मनकी मलिनता जानेसे पहले संसार पाश टूटा कहनेवाले ढोंगियोंको क्या कहा जाए महालिंग गुरु सिद्धेश्वर प्रभु ?
(४६३) लड़के ! मुंहसे कहे शब्दोंसे तेरे मनका रोग दूर नहीं हुआ है रे ! सच जान लेनेके अनंतर संसार छोड़नेकी क्या आवश्यकता ? सत्य जान लेनेके पश्चात् हाथ पकड़ी स्त्रीको छोड़नेसे अघोर नरकमें रखेगा वह केदार गुरुदेव उस दिनसे।
टिप्पणी:-वचनकारोंका यह सिद्धांत ही है कि धर्मानुकूल तथा धर्मसे अविरोधी भोग परमात्माका प्रसाद है।