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विधि-निषेध
२७३ साधकको शुद्ध मनसे, द्वंद्वातीत होकर, परमात्माका ध्यान करना चाहिए । तीर्थ यात्रा आदि दिखावा है, बाह्य पावर है । वह सच्चा धर्म नहीं है यह वचनकारोंका स्पष्ट मत है।
(४४४) जहां पानी देखा वहां डूबने लगे, जहां वृक्ष देखा वहां परिक्रमा करने लगे, सूखनेवाले पानी और वृक्षपर विश्वास करोगे तो वह तुम्हें क्या जाने कूडलसंगमदेवा।
(४४५) श्रेष्ठ गंगाको स्पर्श करनेवाले सब देवता बनने लगे तो स्वर्गगंगाका संचार हजारों मील है, उसमें वसनेवाले प्राणी तो अनंतानंत हैं, यह सव प्राणी देवता बनेंगे तो स्वर्ग में रहनेवाले देवता सब अप्रसिद्ध होंगे कपिलसिद्ध मल्लिकार्जुना।
(४४६) अष्टाषष्ठ कोटि तीर्थों का स्नानकरनेवालोंने नहीं देखा। गिनकर लक्षालक्ष कोटि जाप करनेवालोंने, ध्यान, मौन अनुष्ठान करनेवालोंने नहीं देखा। एक सौ बीस वार भूप्रदक्षिणा करनेवालोंने नहीं देखा । काशी, केदार, श्रीशैल, शिवगंगा आदि यात्रा किये हुए लोगोंने नहीं देखा। यह सव भ्रम है रे बावा ! उनकी जगह हम बताते हैं। श्रीगुरु करुणासे विजय पाकर, उनका दिया हुआ लिंग हाथ में पकड़कर, अनेक जगह गया हुया अथवा जानेवाला मन पकड़कर उस लिंगमें बांधते हुए दृढ़ रखा तो परमात्मा वहीं रहता है । यही सच है और सब झूठ, सफेद झूठ है महालिंग गुरुसिद्धेश्वरप्रभु ।
(४४७) निश्चल शरणोंके प्रांगनमें अष्टाषष्ठ कोटि तीर्थ आकर खड़े रहते हैं । तू किंचित्-सा प्रसन्न हुआ तो वह सब पाकर खड़े रहते हैं कपिलसिद्ध मल्लिनाया।
टिप्पणी:--वचनकारोंने कहा है कि परमात्मा तीर्थक्षेत्रोंमें नहीं होता। वह भक्तोंके अंतरंगमें चिद्रूप होकर रहता है । वह भटकनेवाले मनको ध्यानसे स्थिर करनेसे मिलेगा।
जैसे सैंकड़ों तीर्थ और देवता त्याज्य हैं वैसे ही चंडी, भैरव, शीतला आदि देवता और सगुन-असगुन भी त्याज्य हैं। हिंदी प्रदेशमें जैसे चंडी, भैरव, शीतलदेवी, कालिका, वाहारणदेवी आदि प्रचलित हैं वैसे ही कन्नड़ भापा प्रदेशमें मारी, मसणी, मातति, आदि नाम आते हैं। अर्थात् वचनोंमें वही नाम रखे गये हैं।
(४४८) मारि, मसणी आदि दूसरे तीसरे देवता नहीं है, मारि क्या है ? जो नहीं देखना चहिए वैसा कुछ देखा तो वह मारि है, वाणीको जो नहीं बोलना चाहिए वह बोला तो वही मारि है, हमारे कूडलसंगमदेवको भूला तो वह महामारी है।