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वचन-साहित्य-परिचय की फसल काटकर. खाना नहीं छोड़ा। अष्टमद नामका मसाला, मिर्च, सुपारी नहीं छोड़ा । सब इंद्रियोंका इंद्रियजन्य सुख सुफल खाना नहीं छोड़ा । मन नामके कलसे पर मंत्र रूपी कपड़ा नहीं बांधा । चित्त रूपी मटके में चिदमृत रूपी पानी भरकर चिन्मय लिंगका अभिषेक नहीं किया। अंतरंगके विचार जान लेने के पहले अर्थहीन संकल्पोंसे वाह्य-पदार्थों को छोड़ करके मुक्ति पानेकी बातें करने वाले युक्ति हीनोंका द्वंद्व चक्र नहीं टलेगा। इस प्रकारके अज्ञानियोंकी हालत वल्मिकके अंदर वसे सांपको मारने के लिए बल्मिकपर लकड़ी पीटनेका-सा है अखंडेश्वरा।
टिप्पणी:-वचनकारोंने बाह्य शुद्धि, आचार, बाह्य शौच अशौच आदिको कोई खास महत्त्व नहीं दिया है। उन्होंने सत्य, अहिंसादि यम-नियमके विषयमें बार-बार जोर देकर कहा है । साथ-साथ उन्होंने जहां तहां पाये जाने वाले देवी-देवताओंकी पूजाका भी विरोध किया है।
(४४०) विश्वासी पत्नीका एक ही पति होता है रे ! निष्ठावान भक्तोंका एक ही भगवान होता है । नहीं, नहीं, अन्य देवी देवताओंका संग अच्छा नहीं है । उनका साथ व्यभिचार है ; कूडलसंगमदेव यह देखेगा तो नाक काटेगा। ' (४४१) पत्थर लिंग नहीं है । वह छेनीकी नोकसे. फूटा है। पेड़ भगवान नहीं वह पागमें जलता है। मिट्टी भगवान नहीं वह पानीमें गलती है। इन सबको जाननेवाला चित्त भगवान नहीं है । वह इंद्रियोंके समूहमें फंसकर स्वत्वहीन हो गया है। इन सबको अलग करनेपर जो बचा उसके अंदर जाकर इन सबके आधारभूत, व्रतमें दूसरा कुछ न मिलाकर, जहां जो मिला उसमें से न लेते हुए, विश्वाससे, निष्ठा और श्रद्धासे, दृढ़ रहकर, विना उस लिंगके, और कुछ न जानते हुए सर्वांगलिगीवीरवीरेश्वरको शरण जा।
टिप्पणी:-परमात्मा शुद्ध चैतन्यरूप है.। वचनकारोंने उस चैतन्यरूप परमात्माकी सात्विक पूजाका विधान बताया है। सब प्रकारकी तामसिक पूजाका विरोध किया है।
(४४३) ढेर-ढेर पत्रपुष्प लाकर लिंगकी चाहे जितनी पूजाको तो क्या ? तन मन धन समर्पण करके पर-धन, पर-दारोपहार, असत्याचरण आदिमें चलनेवाली पागल बुद्धिका दुराचार दूर होने तक हमारा अखंडेश्वर भी दूर ही रहेगा।
(४४३) सर्वस्वका त्याग करनेके पश्चात् बचे हुए फूलोंको लाकर, हारजीत के परेका पानी भरकर, सव इंद्रियोंको आंखोंमें भरकर सदैव अपने शरीर और मनोगत इच्छानोंको भूलकर लिंगकी पूजा करनी चाहिए अंबिगर चौडेय ।
टिप्पणीः-तामसिक पूजा छोड़ते ही साधकका काम पूरा नहीं होता।